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( १३४ ) करते समय जिसके हृदय मे मोह-राग द्वेपरूप मलिनता का नाश 'होकर शुद्धता प्रगटे और शुद्धता की वृद्धि होवे, वह ही भगवान
की जल से पूजा का सच्चा अधिकारी है। जिसके हृदय मे मोह-राग द्वष हो, यह भगवान की जल से पूजा करने का सच्चा अधिकारी नही है।
प्रश्न २२-जल से पूजा करना सार्थक कब है और कब नहीं है ?
उत्तर-जैसे-जल जब स्वच्छ हो और स्थिर हो, तब उसमे अपनी मुखाकृति भासती है वैसे ही अपना हृदय मे से मोह, मिथ्यात्व की मलिनता दूर होकर स्वच्छता (शुद्धता) प्रगटे और राग-द्वेषरूप क्षोभ दूर होकर स्थिरता हो, तब भगवान का प्रतिबिम्ब झलक सकता है और तब जल से पूजा करना सार्थक है और जब अपना हृदय आकुलता सहित, मोह-राग द्वेष से सहित हो, तव जल से पूजा करना सार्थक नही है।
प्रश्न २३-'जल से पूजा की ऐसा कहना सार्थक-कब है और कब नहीं है?
उत्तर-जिस प्रकार जल का भरा हुआ समुद्र गम्भीर है उसमे कूड़ा डाला जावे या पुष्प- डाला जावे, वह सबको अपने मे समा लेता है, इतना गम्भीर है; उसी प्रकार कड़ारूप प्रतिकूलता हो या पुष्परूप अनुकूलता हो, तो भी वह अपने में समा लेना चाहिए अर्थात् इतनी गम्भीरता आ जानी चाहिए कि अनुकूलता और प्रतिकूलता ज्ञान का ज्ञय हो तब "जल से पूजा की" ऐसा कहना सार्थक है। अनुकूलता और प्रतिकूलता मे इष्ट-अनिष्टपना मानने वाले जीव ने "जल से पूजा की" कहना सार्थक नही है। अतः ज्ञाता-दष्टा का अनुभव होने पर "जल से पूजा की" सार्थक है ? अपना अनुभव हुए बिना 'जल से पूजा की' क्या ऐसा कहना सार्थक है ? कभी भी नही।