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( ८१ ) (१३) नौ तत्त्वो मे अश्रद्धा अर्थात् विपरीत श्रद्धा का होना यह मिथ्यादर्शन है। [गा० १७६२ से १८०९]
(१४) अन्य मतियो के बताये हुए पदार्थों में श्रद्धा का होना यह मिथ्यादर्शन है। [गा० १७६७]
(१५) आत्मस्वरूप की अनुपलब्धि होना यह मिथ्यादशन है।
(१६) सूक्ष्म अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों का विश्वास ना होना यह मिथ्यादर्शन है । जैसे-(अ) जो पदार्थ केवलोगम्य हैं वह छदमस्य को आगम आधार से जानने योग्य है। (आ)-धर्म-अधर्म-आकाशकाल-परमाणु आदि को सूक्ष्म पदाथ कहते हैं क्योकि यह इन्द्रियो से ग्रहण नहीं होते हैं। (इ)-राम-रावण आदि को अर्थात् जिन पदार्थो मे भूतकाल के बहुत समय का अन्तर हो या आगे बहुत समय बाद होने वाला हो। जैसे-राजा श्रेणिक प्रथम तीर्थंकर होगे तथा दूरवर्ती पदार्थों मे मेरुपर्वत, स्वर्ग, नदी, द्वीप, समुद्र इत्यादिक जिनका छदमस्य वहाँ पहुँचकर उनका दर्शन नही कर सकता है। अत मिथ्यादृष्टि इनका विश्वास नही करता है यह मिथ्यादान है । [गा० १८१०]
(१७) मोक्ष के अस्तित्व का और उसमे पाये जाने वाले अतीन्द्रिय सुख और अतीन्द्रिय ज्ञान के प्रति रुचि ना होना यह मिथ्यादर्शन है।
[गा० १८१२] (१८) जाति अपेक्षा छह द्रव्य का स्वत सिद्ध अनादिअनन्त स्वतत्र परिणमन न मानना यह मिथ्यादर्शन है। [१८१३]
(१६) प्रत्येक द्रव्य को नित्य-अनित्य, एक अनेक, अस्ति-नास्ति तत-अतत आदि स्वरूप वस्तु अनेकान्तात्मक है ऐसा न मानना किन्तु एकान्तरूप मानना यह मिथ्यादर्शन है। [गा० १८१४]
(२०) नोकर्म (शरीर-मन-वाणी) भावकर्म (क्रोधादिशुभाशुभभाव) और धन-धान्यादि जो अनात्मीय वस्तुएँ हैं उनको आत्मीय
डा.यह मिथ्यादर्शन है।