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________________ वैराग्यात्मक दोहे (१) बालपने अज्ञात मति, जीवन मद कर लीन। वृद्धपने है सिथिलता, कहो धर्म कब कोन ।। (२) बाल पने विद्या पढे, जोबन सजम लीन । वृद्ध पर्ने सन्यास अहि, करै करम को छीन । (३) जिस कुटुम्ब के हेतु में, कीने बहु विधि पाप । ते सब साथी बिछडे, पडा नरक मे आप ॥ (४) तीन लोक की सम्पदा, चक्रवर्ती के भोग । काक बीट सम गिनत है, वीतराग के लोग। (५) क्षमा तुल्य कोई तप नही, सुख सन्तोष समान । नहि तृष्णा सम व्याधि है, धर्म समान न आन । (६) या ससारी जीव की, प्रीत जैसी पर माह । ऐसी प्रीत निज से करे, जन्म मरण दुःख जाये ।। (७) यह जग अथिर असार है, महा दुख की खान । यामे राचे ते कुधी, विरचे तिन कल्याण ।। (८) अपने शुद्ध सुभाव से, कभी न कीनी प्रीत । लगो रहा पर द्रव्य से, यह मूढन की रीत ॥ (8) भ्रमता जीव सदा रहे, ममता रत पर जाय। समता जव मन मे धरे, जमता सा हर जाय ।।
SR No.010119
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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