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( ५४ ) __ प्रश्न १६१-प्रमाण सप्तभगी को जानने से कल्याण कैसे होता
उत्तर-[अ] (१) मेरी आत्मा अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मे अस्ति है। (२) मेरी आत्मा तत है। (३) मेरी आत्मा नित्य है। (४) मेरी आत्मा एक है। [आ] (१) मेरी आत्मा की अपेक्षा बाकी बचे हए अनन्त आत्मा, अनन्तानन्त पुदगल, धर्म-अधर्म-आकाश एकएक और लोक प्रमाण असख्यात कालद्रव्य-पर द्रव्य-क्षेत्र, काल, भाव नास्ति है। (२) सब पर अतत है। (३) सव पर अनित्य है। (४) सब पर अनेक है । ऐसा जानते ही दृष्टि एकमात्र अपने स्वभाव पर आ जाती है ऐसा ज्ञानी मानते है, क्योकि जब पर की ओर देखना नहीं रहा तो पर्याय मे राग-द्वेष भी उत्पन्न नहीं होगा। दृष्टि एकमात्र स्वभाव पर होने से धर्म की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रथम प्रकार के भेद विज्ञान मे पर्याय का भी भेद विज्ञान आ जाता है ऐसा जानी जानते हैं मिथ्यादृष्टि नही जानते है। इस प्रकार पात्र जीव प्रमाण सप्तभगी को जानने से धर्म की प्राप्ति करके क्रम से निर्वाण का पात्र बन जाता है।
प्रश्न १६२-नयसप्तभंगी जानने से कैसे कल्याण हो ?
उत्तर- नय सप्तभगी वह कर सकता है जिसने मोटे रूप से पर द्रव्यो से तो मेरा किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है--
[अ] (१) अनन्त गुण सहित अभेद परम पारिणामिक ज्ञायक भाव अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव अस्ति है, (२) ज्ञायक भाव तत् है, (३) ज्ञायक भाव नित्य है, (४) ज्ञायक भाव एक है। [आ] (१) इस त्रिकाली ज्ञायक की अपेक्षा पर्याय मे विकारी भाव, अपूर्ण-पूर्ण शुद्ध पर्याय, गुणभेद कल्पना आदि परद्रव्य क्षेत्र-काल-भाव से नास्ति है, (२) विकारी भाव, अपूर्ण-पूर्ण शुद्ध पर्याय, गुण भेद कल्पना आदि सब अतत् है, (३) विकारी भाव, अपूर्ण-पूर्ण शुद्ध पर्याय, गुणभेद कल्पना आदि अनित्य है, (४) विकारी भाव, अपूर्ण-पूर्ण शुद्ध पर्याय, गुणभेद