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तत तो है ही नही फिर "जो सत् है वह " यह शब्द कैसा ? ( ३ ) सत् को नही मानने वाला उसका अभाव कैसे सिद्ध करेगे अर्थात् नही कर सकेंगे । ( ४ ) सत् को नित्य सिद्ध करने मे जो प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है वह तो क्षणिक एकान्त ( सर्वथा ) का बाधक है । (५) वस्तु के अभाव मे परिणाम किसका । इसलिए नित्य के अभाव मे अनित्य तो गधे के सीग के समान है ।
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प्रश्न ११४ -- नित्य- अनित्य के सम्बन्ध में क्या रहा?
उत्तर- द्रव्य और पर्याय दोनो को मानना चाहिए, क्योकि पर्याय 'अनित्य है उसे गौण करके द्रव्य नित्य है उसका आश्रय लेकर धर्म को शुरूआत करके क्रम से पूर्णता की प्राप्ति होती है ।
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प्रश्न ११५ – अनेकान्त वस्तु को नित्य अनित्य बताने से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर - आत्मा स्वयं नित्य है और स्वयं ही पर्याय से अनित्य है, उसमे जिस ओर की रुचि, उस ओर का परिणाम होता है । नित्य वस्तु की रुचि करे, तो नित्य स्थायी ऐसी वीतरागता की प्राप्ति होती है । ' और अनित्य पर्याय की रुचि करे, तो क्षणिक राग-द्वेष उत्पन्न होते 'हैं ।
प्रश्न ११६ - तत् तत् में किस बात का विचार किया जाता है ? उत्तर - नित्य - अनित्य मे बतलाये हुए परिणमन स्वभाव के कारण वस्तु मे जो समय- समय का परिणाम उत्पन्न होता है वह परिणाम सदृश है या विसदृश है इसका विचार तत्-अतत् मे किया जाता है ।
प्रश्न ११७ - तत् किसे कहते हैं ?
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उत्तर - परिणमन करती हुई वस्तु "वही की वही है, दूसरी नही" इसे तत्भाव कहते हैं ।
प्रश्न ११८ - अतत् किसे कहते हैं ?
उत्तर - परिणमन करती हुई वस्तु समय-समय मे नई-नई उत्पन्न