________________ ( 235 ) प्रश्न २२७-इन्द्रियज्ञान में सबसे बड़ा दोष क्या है ? उत्तर-इन्द्रिय ज्ञान मे सबसे बडा दोष यह है कि वह जिस पदार्थ को जानता है उसमे मोह राग द्वेष की कल्पना करके आकुलित हो जाता है / और आकुलता ही आत्मा के लिए महान् दुख है। इसको प्रत्यर्थपरिणमन कहते हैं। (1046) प्रश्न २२८-अबुद्धिपूर्वक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर-चारघाति कर्मों के निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध से जो जीव के अनन्त चतुष्ट का घात हो रहा है यह अबुद्धिपूर्वक महान दुख है / अनन्त चतुष्ट रूप स्वभाव का अभाव ही इसकी सिद्धि मे कारण है। (1076 से 1112) प्रश्न २२६---अतीन्द्रिय ज्ञान तथा सुख की सिद्धि करो? उत्तर-यह आत्मा के दो अनुजीवो गुण हैं / अनादि से घातिकर्मों के निमित्त से इनका विभाव रूप परिणमन हो रहा है / उनका अभाव होते ही इनकी स्वभाव पर्याय प्रकट हो जाती है। उसी का नाम अतीन्द्रियज्ञान तथा अतीन्द्रिय सुख है। इसी को अनन्त-चतुष्टय भी कहते हैं क्योकि अनन्तवीर्य तथा अनन्तदर्शन इसके अविनाभावी है। यही वास्तव मे आत्मा का पूर्ण स्वरूप है जिस पर उपादेय रूप से सम्यग्दृष्टि को दृष्टि जमी हुई है। (1113 से 1138 तक) पांचवें भाग का परिशिष्ट सम्यक्त्व के लक्षणों का तुलनात्मक अध्ययम __ श्रीसमयसार जी मे कहा है भूयत्येणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। आमवसंवरणिज्जरबधो मोक्खो य सम्मत्तं // 13 // अर्थ-भूतार्थ नय से जाने हुवे जीव, अजीव और पुण्य, पाप तथा आस्रव, सवर, निर्जरा, बघ और मोक्ष ये नौ तत्त्व सम्यक्त्व है। भाव सम्यग्दृष्टि काम आत्मा का पूर्ण अनन्तदर्शन इस अनन्त-चतुष्टय भा