________________ ( 191 ) (15) सत् मे तत् अतत् का भेद नहीं है इसका वर्णन न० 766 मे किया है। (16) सत् मे एक अनेक का भेद नहीं है इसका वर्णन न० 754 मे किया है। __इस प्रकार जितना ग्रन्थ का भाग आपके हाथ मे है अर्थात् 261 से 502 तक / इसमे उपर्युक्त 16 दृष्टियो से काम लिया है / सारे का निरूपण इन्ही 16 दृष्टियो क आधार पर है जो मूल ग्रथ मे श्लोक न० 752 से 767 तक 16 श्लोको द्वारा कहा गया है। हमने चार-चार श्लोक प्रत्येक अवान्तर अधिकार के अन्त मे परिशिष्ट के रूप मे जोड दिये हैं ताकि आप जहाँ यह विषय पढे वही आप को दृष्टि परिज्ञान भी हो जाय / हमारी हार्दिक भावना यही है कि आप का भला हो आप ज्ञानी बनें। यह हम जानते हैं कि कोई किसी को ज्ञानी नही बना सकता / न हमारे भाव मे ऐसी एकत्वबुद्धि है किन्तु आशीर्वाद रूप से ऐसा बोलने की व्यवहार पद्धति है। जिसके उपादान मे समझने की योग्यता होगी, उन्हे ग्रथ निमित्त रूप मे पड जायेगा। ऐसी अलौकिक फिन्तु सुन्दर वस्तु स्थिति समझाने वाले श्री कहानप्रभु सद्गुरुदेव की जय / ओ शान्ति। सप्तभंगी विज्ञान यह लेख इस प्रथ के श्लोक न० 287, 288, 335, 466 का मर्म खोलने के लिये लिखा गया है। प्रमाण के लिए देखिए श्री पचास्तिकाय गाथा 14 तथा श्री प्रवचनसार गा० 115 / एक प्रमाण सप्तभङ्गी होती है एक नय सप्तभगी होती है। जो दो द्रव्यो पर लगाई जाती है वह प्रमाण सप्त भगी कहलाती है सो श्री पचास्तिकाय की उपर्युक्त गाथा मे तो प्रमाण सप्तभगी का कथन है 'जैसे एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य में अभाव' वह इस प्रकार चलती है। दूसरी नय सप्तभगी है वह सामान्य विशेष पर चलती है जो श्रीप्रवचनसार की उपर्युक्त