________________ ( 183 ) वह जब मिटे जब आपको यह परिज्ञान हो कि प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र सत है। अनादिनिधिन है / स्वसहाय है / उसका अच्छा या बुरा परिणमन सोलह आने उसी के आधीन है / जब तक स्वतन्त्र सत् का ज्ञान न हो तब तक पर मे एकत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व भाव न किसी का मिट सकता है न मिटा है। इसलिए पहले ज्ञानगुण के द्वारा सत् का ज्ञान करना पडता है क्योकि वह ज्ञान सम्यग्दर्शन मे कारण पडता ही है। पर व्याप्ति उधर से है इधर से नहीं है अर्थात् सब जानने वालो को सम्यग्दर्शन हो ही ऐसा मही है किन्तु जिनको होता है उनको सत् के ज्ञानपूर्वक ही होता है। इससे पता चलता है कि ज्ञानगुण स्वतन्त्र है और श्रद्धागुण स्वतन्त्र है। दृष्टान्त भी मिलते हैं। अभव्यसेन जैसे ग्यारह अग के पाठी श्रद्धा न करने से नरक मे चले गये और श्रद्धा करने वाले अल्पश्रुति भी मोक्षमार्गी हो गए। इसलिए पण्डिताई दूसरी चीज है / मोक्षमार्गी दूसरी चीज है। बिना मोक्षमार्गी हुए कोरे ज्ञान से जीव का रचमात्र भी भला नहीं है। पण्डिताई की दृष्टि तो भेदात्मक ज्ञान, अभेदात्मक ज्ञान और उभयात्मक ज्ञान है सो आपको करा ही दिया। __ जैसे जो श्रद्धा गुण से काम न लेकर केवलज्ञान से काम लेते हैं वे कोरे पण्डित रह जाते हैं और मोक्षमार्गी नही बन पाते उसी प्रकार जो श्रद्धा से काम न लेकर पहले चारित्र से काम लेने लगते है और बावा जी बनने का प्रयत्न करते हैं वे केवल मान का पोषण करते हैं। मोक्षमार्ग उनमे कहाँ / जब तक परिणति स्वरूप को न पकडे तब तक लाख सयम उपवास करे--उनसे क्या? श्री समयसार जो मे कहा है कोरी क्रियाओ को करता मर भी जाय तो क्या ? अरे यह तो भान कर कि शुद्ध भोजन की, पर पदार्थ की तथा शुभ या अशुभ शरीर को क्रिया तो आत्मा कर ही नहीं सकता। इनमे तो न पाप है, न पुण्य है, न धर्म है। यह तो स्वतन्त्र दूसरे द्रव्य की क्रिया है / अब रही शुभ विकल्प की बात वह आस्रव तत्त्व है, बध है, पाप है ? सोच तो तू कर