________________ ( 167 ) खुली और यह अनुभव करने लगा कि वह तो स्वत सिद्ध निविकल्प अर्थात् भेद रहित अखण्ड है। इसको कहते हैं शुद्ध दृष्टि / यहाँ शुद्ध शब्द का अर्थ राग रहित नही किन्तु भेद रहित है। इस दृष्टि का पूरा नाम है शुद्ध द्रव्याथिक दृष्टि अर्थात् वह दृष्टि जो सत् को अभेद रूप ज्ञान करावे। और आगे चलिए। गुरु जी ने शिष्य से पूछा कि यह पुस्तक किसकी है तो शिष्य ने कहा महाराज मेरी। अब उससे पूछते हैं कि तू तो जीव है, चेतन है, पुस्तक तो अजीव है, जड है / यह तेरी कैसी हो गई। अब शिष्य फिर चक्कर मे पडा और बहुत देर सोचने के बाद जब और कुछ उत्तर न बन पड़ा तो कहने लगा, महाराज इस समय मेरे पास है मैं पढता हूँ। इसलिए व्यवहार से मेरी कह देते हैं वास्तव मे मेरी नहीं है। अरे बस यही बात है। द्रव्य है, गुण है, पर्याय है, यहा भी भेद से ऐसा कह देते हैं, यहाँ भी यह व्यवहार है, वास्तव में ऐसा नहीं है। वास्तव निश्चय / जो द्रव्य को भेद रूप कहे वह व्यवहार और जो अभेद रूप कहे वह निश्चय / इसलिए इसका दूसरा नाम रक्खा निश्चयनय / इस प्रकार इसको शुद्ध द्रव्याथिक दृष्टि, निश्चय दृष्टि, भेद निषेधक दृष्टि, व्यवहार निषेधक दृष्टि, अखण्ड दृष्टि, अभेद दृष्टि, अनिर्वचनीय दृष्टि आदि अनेको नामो से आगम मे कहा है। और आगे चलिये अब शिष्य को (3) तीसरी दृष्टि का परिज्ञान कराते हैं। आचार्य कहने लगे कि अच्छा बताओ | आत्मा मे कितने प्रदेश हैं ? वह बोला-असख्यात् / व्यवहार से या निश्चय से ? व्यवहार से, क्योकि अब तो वह जान चुका था कि भेद व्यवहार से है। और फिर पूछा कि निश्चय से कैसा है तो वोला अखण्ड देश। साबाश त होनहार है हमारी बात समझ गया / देख वे जो व्यवहार से असख्यात है वे ही निश्चय से एक अखण्ड देश है। इसी को कहते हैं प्रमाण दृष्टि / जो ऐसा है वहो ऐसा है / यही इसके बोलने की रोति है। यह पदार्थ को भेदाभेदात्मक कहता है अर्थात् जो भेद रूप है वही अभेद रूप है। इस प्रकार तोना दृष्टिया द्वारा