________________ दुष्ट, अनिल को उपादेय माण है, (5) ज्ञान का कारण ( 143 ) चाहिए" ऐसा करने से "वह भव्य जीव वीतराग होकर भव सागर से तरता है।" [पचास्तिकाय गा० 172] (2) राग कैसा भी हो, वह अनर्थ सन्तति का क्लेशरूप विलास ही है। [पचास्तिकाय गा० 168] (3) ज्ञानी का अस्थिरता सम्बन्धी राग भो मोक्ष का घातक, दुष्ट, अनिष्ट है और वध का कारण है। (4) मिथ्यादृष्टि अणुव्रतमहाव्रतादि को उपादेय मानता है इसलिए उसका शुभभाव अनर्थ परम्परा निगोद का कारण है, (5) ज्ञानी का राग पुण्य वध का कारण है और मिथ्यादृष्टि का शुभराग पाप बध का कारण है। परमात्मप्रकाश अध्याय प्रथम गा०६८] प्रश्न ६-व्यवहार बढ़े, तो निश्चय बढे क्या यह कहना ठीक है? उत्तर-विल्कुल गलत है क्योकि -(1) द्रव्यलिंगी को व्यवहाराभास जिनागम अनुसार है, उसे निश्चय होता ही नही है। (2) 8, 6, 10 गुणस्थानो मे निश्चय है, वहां पर देव-गुरु-शास्त्र का राग, अणुव्रत, महावतादि का राग नहीं है। (3) केवली भगवान को निश्चय है और व्यवहार है ही नही। इसलिए व्यवहार हो, तो निश्चय बढे-यह अन्य मिथ्यादृष्टियो की मान्यताये हैं, जिन-जिनवर-जिनवरवृषभो की मान्यता नही है। प्रश्न ७-जो जीव जैनधर्म का सेवन आजीविकादि के लिए करते हैं उन्हें भगवान ने क्या-क्या कहा है ? उत्तर-(१) जैनधर्म का सेवन तो ससार के नाश के लिए किया जाता है, जो उसके द्वारा सासारिक प्रयोजन साधना चाहते हैं वह बडा अन्याय करते हैं, इसलिए वे तो मिथ्यादृष्टि हैं ही। (2) सासारिक प्रयोजन सहित जो धर्म साधते हैं, वे पापी भी है और मिथ्यादृष्टि तो हैं ही। (3) जो जीव प्रथम से ही सासारिक प्रयोजन सहित भक्ति करता है उसके पाप का ही अभिप्राय हुमा। [मो० प्र० पृष्ठ 216 से 222] (4) इस प्रयोजन हेतु अरहन्तादिक की भक्ति करने से भी तीव्र कषाय होने के कारण पापबन्ध ही होता है। [मो० प्र० पृष्ठ 3