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( ११८ ) उत्तर-(१) अप्रतिहत पुरुपार्थ द्वारा पारिणामिक भाव का आश्रय बढने पर विकार का नाश हो सकता है ऐसा क्षायिकभाव सिद्ध करता है । (२) यद्यपि कर्म के साथ का सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादिकालीन है । तथापि प्रतिसमय पुराने कर्म जाते हैं और नये कर्मों का सम्बन्ध होता रहता है। उस अपेक्षा से उसमे प्रारम्भिकता रहने से (सादि होने से) वह कर्मों के साथ का सम्बन्ध सर्वथा दूर हो जाता है, ऐसा क्षायिक भाव सिद्ध करता है।
प्रश्न ५५-औपशमिक भाव, साधकदशा का क्षायोपशमिक भाव और क्षायिकभाव क्या सिद्ध करते हैं ?
उत्तर-(१) कोई निमित्त विकार नहीं कराता किन्तु जीव स्वय निमित्ताधीन होकर विकार करता है। (२) जीव जब पारिणामिक भाव रूप अपने स्वभाव की ओर लक्ष करके स्वाधीनता प्रगट करता है तब निमित्त की आधीनता दूर होकर शुद्धता प्रगट होती है ऐसा
औपशमिक भाव, साधकदशा का क्षयोपशम भाव और क्षायिक भाव सिद्ध करता है।
प्रश्न ५६~-पांच भावो मे से किस भाव की ओर सन्मुखता से धर्म की शुरूआत, वृद्धि और पूर्णता होती है ?
उत्तर-(१) पारिणामिक भाव के अतिरिक्त चारो भाव क्षणिक है । (२) क्षायिकभाव तो वर्तमान है ही नहीं। (३) औपशमिक भाव हो तो वह अल्पकाल टिकता है। (४) औदयिकभाव और क्षायोपशमिक भाव भी प्रति समय बदलते रहते है। (५) इसलिए इन चारो भावो पर लक्ष्य करे तो एकाग्रता नही हो सकती है और ना ही धर्म प्रगट हो सकता है। (६) त्रिकाल स्वभावी पारिणामिक भाव का माहात्म्य जानकर उस ओर जीव अपनी वृत्ति करे (झुकाव करे) तो धर्म का प्रारम्भ होता है और उस भाव की एकाग्रता के बल से वृद्धि होकर धर्म की पूर्णता होती है।