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कातिक इष्टि कीबोरामा मानिस गद चोर मार सामाग्यलकी मोर मान कर किसी एक पत्र की ओर भूलक सपिकोना। समंदर में पहलवा स्वरेस के स्वामी समस्याका कपा मम है वह कहते हैं कि मनान! पापको हमारी या कोई प्रो. बन नहीं है क्योंकि भाप बोहराब मौरन अपने निवाई प्रयोका है, क्योंकि मापने रमार को समूल नष्ट कर दिया है, फिर भीमा -भक्ति पूर्वक से श्री मापके गुणों का स्मरण करते हैं वह इसलिए कि ऐसा करने को पाप पासनामों पर मोह-राम वापि भारों से मलिन मन वकास परिय हो गया है।
म पूजयास्त्वपि वीतरामे, न मिश्या ना विपतिवरे ।
तथापि ते पुण्य पुरुष स्मृतिनः पुनाति वितं दुरिता बनेयः॥ इस युग में मुनि योगेन्दु का भी योगदान उल्लेखनीय है। इनका समय यद्यपि विवादास्पद है फिर भी हम उसे लगभग 8 वीं 9 वी शताब्दी तक निषित कर सकते हैं। इनके दो महत्वपूर्ण प्रथ निर्विवाद रूप से हमारे सामने है-41) परमात्मसार पोर (2) योगसार । इन ग्रंथो मे कषि ने निरंजन प्रादि कुछ ऐसे सम्म दिये हैं जो उत्तत्कालीन रहस्यवाद के अभिव्यजक कहे मा सकते है। इन प्रन्थों में मनुभूति का प्राधान्य है इसलिए कहा गया है कि परमेश्वर से मम का मिलन होने पर पूजा प्रादि क्रियाकर्म निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि दोनों एकाकार होकर समरस हो जाते हैं।
मणु मिलियउ परमेसरहं, परमेसर चिमणस्य ।
बीहि वि समरसि हूवाह पुग्ज पावर कम्स । कोमसार,12 3. उत्तरकाल
उत्तरकाल मे रहस्यवाद की प्राचारमत शाला में समयानुल परिवर्तन हमा । इस समय तक जैनसंस्कृति पर वैदिक सापकों, राजाभो प्रौर मुसलमान प्राक्रमणकारियों द्वारा घनघोर विपदामों के बादल छा गये थे। उनके बचने के लिए भाचार्म जिमसेन ने मनुस्मृति के प्राचार को गेनीकत कर दिया, जिसका विरोध बसवी मताब्दी के प्राचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिमकसम्म में सबस्वर में ही किया। इससे लगता है, तत्कालीन समाज उस व्यवस्था को स्वीकार कर पुकी थी। बन रहस्यबाव की यह एक पौर सीड़ी पी, जिसने उसे वैदिक संस्कृति के नजदीक ला दिवा ।
जिनसेन पार सोमदेव के बाद रहस्यवादी कपियों में भूमि रामसिंह का काम विशेष रूप से लिया जा सकता है। उनका 'पाहुर वोहा' रहस्यवाद को परिभाषामों से भरा पड़ा है। लिव-शक्ति का मिलन होने पर प्रदतभाव की स्थिति का नाती हमार मोह पिसी हो पाता।