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हमने अपनी को नहीं पहचाना तो न तो हम स्वयं संर कोने की क्षमता बनी रह सकती है। इसलिए सबसे प्रथम कर्तव्य यह है कि म स्वयं की शक्ति को पहचानें । इस सूत्र के साथ हमारी ईमानदारी, हमारी ममता और हमारी प्रामाणिकता रहे कहीं और किसुनज सकती है। प्राणिमात्र का कल्याण यह जैन व व्यक्तिनिष्ठ होकर की बात करता है। बालको के व्यकित विकास के लिए तथा समाज के इतर घटकों के लिए हमें अपनी जिम्मेदारी सम कमी होगी । पुरुष वर्ग का सहयोग लेकर यह कार्य अधिक सफलता पूर्वक हो सकता है। इसके लिए वह भी घावश्यक है कि हमारा माचार-विचार शुद्ध धार्मिक और नीतिपरक हो ।
तो जीवन करने वाला इस दृष्टि से प्रभ्युदय के
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नारी और पुरुष जीवन राम के दो पहिये माने गये हैं जिनके परस्पर साहचर्य बार के बिना वह संसार-पथ पर शान्तिपूर्वक नही चल सकता । इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां ये दोनो वर्ग परस्पर मिलकर धर्मसाधना करते रहे, समाज सेवा में जुटे रहे और अपनी प्रात्मिक प्रगति करते रहे । पर यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि प्राचीनकाल में नारी का जीवन बडा कुंठित रहा है । साधारण तौर पर पुरुष ने नारी वर्ग की मात्र भोंग्या माना और उसकी जन्मजात प्रतिमा को उन्मेषित करने के लिए कोई भी साधन प्रस्तुत नहीं किये। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे कहते हुए भी कोई अस्वीकार नहीं कर सकता । नारी समाज ने जिन विकट परिस्थितियों में अपने जीवन को व्यतीत किया, वह विचारणीय है । उनका ध्यान जाते ही हमारे रोगटे खड़े हो जाते हैं ।
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वहां तक प्रतिभा की बात है वह क्रायः सभी के पास होती है । वोपन नाविकता, पुरुषार्थ का सामन मोर मनुकुल परिस्थितियों की निर्मितिव्यक्ति परि को बनाने में विशेष कारण हुमा करती है। यदि समान रूप से अभिव्यक्ति सभी कोटा किये जायें तो कोई कारण नही कि व्यक्ति अपना विकास न
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कर सके । भगवान् महावीर के अनुसार सभी की प्रात्मा बराबर है चाहे वह ली हो या पुष । चात्मा मे ही परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है । यतः कोई भी विकास करके परमात्म मंवस्था पर सकता है । उसमें लिगभेद का प्रश्न ही हमारी अपनी पारियक यक्ति को पहचानकर मपना उबटन विकास कर |मेर की गोति नारी में भी मनबकि है, इसे मेज को नकार नही संपता 1 सबद कीर्तन कित्रित करने की प्रावश्यकता हो सकती है।
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