SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैंने जो ऊपर बतलाया है कि इस मध्यम मार्ग की ओर आकर्षित हुआ साधसंघ धर्म की रक्षा के लिये धीरे २ धनादि प्रपंच की तरफ भी झका था, इस बात की चैत्य वास का प्रारभिक इतिहास भी पुष्टि करता है। उस समय • के कुशल आचार्य बडी पवित्रतापूर्वक रहकर एवं सामयिक अपवादों को सेवन करने भी धर्मकार्य करते होंगे। उनके पास जो धन इकट्टा होता उस धन को वे अपने लिये न खर्च कर श्रीसंघ के हितार्थ ही खर्चते होंगे और इसी कारण वे उस धन को मगलद्रव्य, शाश्वतद्रव्य या निधिद्रव्य के नाम से व्यवहारित करते होगे। हरिभद्रसूरि ने अपने * सम्बोध प्रकारण में जिनद्रव्य के पर्याय के तौर पर इन तीन शब्दो को भी रक्खा है। शब्द शास्त्र के नियमानुसार पर्यायवाचक शब्दो का एक समान ही अर्थ होता है, जैसे कि घट, कलश, कुभ, इन तीन शब्दो की व्युत्पत्ति भिन्न २ होने पर भी उनके अर्थ व्यवहार में जरा भी अन्तर मालूम नहीं होता, मनुष्य, मानव, और मनुज ये तीनो पर्यायशब्द एक ही भाव को सूचित करते हैं इसी तरह यहाँ भी शाश्वतद्रव्य, मगलद्रव्य, निधिद्रव्य और जिनद्रव्य, ये चारो ही शब्द एकार्थक होने के कारण इनके प्रत्येक के भाव में लेशमात्र भी अन्तर का सभव नही हो सकता। जो भाव शाश्वतद्रव्य शब्द से लिया जाता है उसी भाव को जिनद्रव्य शब्द भी सूचित करता है, अर्थात् शाश्वतद्रव्य शब्द में जितनी अर्थ व्यापकता समाई हुई है उतनी ही अर्थ व्यापकता जिनद्रव्य शब्द मे हो तभी वह उसका पर्याय हो सकता है। इस सम्बन्ध मे श्रीहरिभद्रसूरि जी यहाँ तक लिखते है कि यह मगलद्रव्य, शाश्वतद्रव्य, निधिद्रव्य और जिनद्रव्य शब्द से व्यवहारित द्रव्य ज्ञान और दर्शन का प्रभावक है और जिन प्रवचन का प्रचार करने वाला है। अर्थात् यदि संघ मे विद्या की कमी हो, यदि सघ मे सम्यक्त्व की न्यनता हो तो उसकी पर्ति के लिये, उसकी वृद्धि के लिये मगलद्रव्य का उपयोग हो सकता है और यदि सघ मे जिनप्रवंचन का कम प्रचार हो तो उसका विशेष प्रचार करने के निमित्त इस द्रव्य का उपयोग करना, व्यय करना शास्त्र सम्मत है। याने सघ के धार्मिक अगो, जिनकी नीव शारीरिक स्वास्थ्य, विद्या प्रचार, आत्मज्ञान * "पवरगण-हग्मिजणय पहाणपरिसेहि ज तयाइएण। एगाऽणेगेहि कय धीरा त बिति जिणदव्व।।९५।। मगलदव्व निहिदव्व मासयदव्व च सव्व मेगट्ठा। आसायणपरिहारा जयणाए त खु ठायव्व" ।।९६।। "जिणपवयणबुढ्ढिकर पभावग नाण-दसणगुणाण। वुढ्ढतीजिणदव्व तित्थयरत लहइ जीवो (पृ० ४) ।।९७।। 85
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy