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रम्य निजालय तैयार कराने में उसे खर्च करा दिया था। यहां पर यह बात हमें खास ध्यान में रखने योग्य है कि एक जैनगृहस्थ एक जैन मुनि को रुपये अर्पण करने की प्रथना करता है, यद्यपि उस धन को स्वीकार करने में त्यागमूर्ति मुनिजी ने अपना धर्म न समझा, परन्तु एक जैनगृहस्थ- वह भी जैनधर्म को जानने वाला त्यागी योगी को धन देने की बात कहे कया यह आश्चर्य जनक बात नही है?
वर्तमान समय मे भी साधु चाहे जैसे शिथिल हो गये है, कितने एक तो अपने नाम का खाता खोलकर धर्म प्रभावना की प्रवृति कर रहे हैं, जिनके लिये प्रतिमास हजारो का धन खर्च होता रहता है, जिनके पास प्रचलित नोटो के समान संख्याबद्ध पोस्ट की टिकिटे रहती हैं और मात्र पुस्तको के ढेरो की रखवाली कर रहे हैं ऐसे इन साधुओ को भी कोई जैन गृहस्थ यह कदापि नही कह सकता कि महाराज यह धन अगीकार करो और आप इसका यथेच्छ उपयोग करो। जैन गृहस्थ यह समझते हैं कि मुनियो का आचार धन ग्रहण करने का नही है ओर उन्हे धन देने का हमारा भी धर्म नही है । इसी हेतु से वे खुल्लम खुल्ला रूप से साधुओ को नगद धन नही दे सकते एव वे इस प्रकार ले भी नही सकते। तब फिर जैन गृहस्थ लल्लशेठ ने जीवसूरि को पचास हजार रूपये देने की बात और राजा विक्रमादित्य ने श्री सिद्धसेनसूरि के नाम पर लिखे हुये रूपयों की जो बात हमे सप्रमाण मिलती है उसका समन्वय किस प्रकार किया जाय? मुझे तो इन प्रभावको की हकीकत से यह स्पष्ट मालूम होता है कि उस समय के मुनियो मे साधारणरीत्या धन लेने देने का व्यवहार प्रारंभ हो चुका होगा, परन्तु कितने एक त्यागप्रिय विरले महात्मा धन का स्पर्श तक भी न करते होगे। यदि यह रिवाज साधारण न हो गया हो तो जैन गृहस्थ की और सन्यासी के आचार से परिचित राजा की इस तरह की प्रवृति कदापि सर्भावित नही हो सकती कि वे अकिचन मुनि को धन
की प्रार्थन करे। साधुमात्र उपदेश और ग्रन्थ रचना जैसी निर्दोष प्रवृति से लोक कल्याण की साधना करते थे। वे अब विक्रम और लल्लशेठ के समय समाज से धन लेकर भी लोककल्याण की प्रवृति मे पडे थे, मत्र तत्र करते थे, वैद्यक करते थे, ज्योतिष बतलाते थे और मंदिर भी चिनवाते थे। प्रभावक चरित्र मे जो सिद्धमेनसूरि के सम्बन्ध मे उल्लेख मिलता है उसमे यह भी बतलाया है कि उन्होने सुर्वणासिद्धि और सर्षप विद्या द्वारा 1 कर्मारनगर के राजा देवापाल को और 2 भृगुपुर के राजा धनजय (बलमित्र के पुत्र) को एव
१ दखो प्रभावक चरित्र पृ० ९५, शलो० ७५ से ८६ । २ प्रभावक चरित्र पृ० १०२, 83