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उस स्थिति को मैं इस सरल मार्ग का अन्तिम एवं सर्वथा विकृत स्वरूप मानता है। कहा जाता है महावीर निर्वाण से दूसरी शताब्दी मे होनेवाले श्री भद्रवाह स्वामी ने मरीका उपद्रव शान्त करने के लिये तथा संघ मे शान्ति करने के निमित्त उवसग्गहर, स्तोत्र बनाया था। महावीर निर्वाण से पाचवी शताब्दी मे होने वाले विद्यासिद्ध श्रीखपटाचार्य ने अपनी विद्या के चमत्कार से बहुत सी जगह सघोपयोगी कार्य किये थे। वीर निर्वाण से छठी शताब्दी मे होनेवाले श्री वज्रस्वामी ने अपनी गगनगामिनी विद्या से एक देश में से दूसरे देश में ले जाकर दर्भिक्षके भीषण पंजे से बचाकर जैन सघ को सुरक्षित रक्खा था और वीरनिर्वाण से ग्यारहवी-बारहवीं शताब्दी के बीच में होने वाले श्रीहरिभद्रसरि बहत से दःखित जनों को भोजन देकर उनका पोषण करते थे, 'ये बातें त्यागमूर्ति श्रीवर्धमान के कठिन त्यागमार्गी मुनियो के लिये घट नहीं सकती। तरन्तु ऊपर बतलाये हुये मध्यम मार्ग के अवलम्बक भिक्षुओं के लिये ही घटती है। इस प्रकार सरल और लोकोपयोगी मध्यम मार्ग से लगते हये मेरे पूर्वोक्त उल्लेख इन आचार्यों की जीवन घटना पष्ट करती है। यदि हम इसी बात को ध्यान मे रखकर विशेष विचार करे तो हमे इस इतिहास में ही मूर्तिवाद और देवद्रव्य वाद की जड मिल सकती है। मेरी इच्छा थी कि यहा पर उस समय के अन्य भी अनेक आचार्यों के जीवन वृतान्त देकर उपरोक्त मन्तव्य को विशेष दृढ बनाऊँ किन्तु लाचार है कि वैसा नही कर सकता क्योकि वीर निर्वाण मे १००० तक के इतिहास का अधिक हिस्सा अभी तक विशेष अन्धकार मे पडा है। उस पे से जो कछ मिलता है उसमे कितने एक नामो की और उन से लगती उपयोगी दन्तकथा वाली कुछ २ बातें उपलब्ध होती हैं, जो परम्परा के आधार से वर्तमान पट्टावालियों में उल्लिखित है। यह तो बद्ध समय के श्रीवर्धमान के मार्ग की पगिति से और अपने इतिहास में मिलनेवाले चैत्यवाम के उल्लेख मे उम (चैत्यवाम) की जड़ को ढूंढ़ निकालने का मेरी ऊपरी-ब्राह्मप्रयास मात्र है। इस विषय मे मैं दृढतापूर्वक इतना कह सकता हूँ और आगे कह भी चुका हूँ कि जिस मूर्तिवाद का विधान और देवद्रव्य की गन्ध अगमत्र ग्रन्थो मे नही मिलती उसका हरिभद्रमरि समर्थन पूर्वक उल्लेख करते है इसका क्या कारण होना चाहिये? इस प्रश्न का उत्तर स्वय ही एक ऐसी परम्परा को लूंढ निकालता है कि जो मर्निवाद तथा देवद्रव्य को माननेवाली थी और जिसका शास्त्रविश्रत चैत्यवाम परम्परा नाम था। इसमें मूर्तिवाद और देवद्रव्य से लगते हुये श्रीहरिभद्रसूरि के उल्लेखो के मूलस्वरूप मे हमे भी उसी परम्परा को स्वीकारना है जिसे पहले शास्त्रविश्रत परम्परा कही है। यह परम्परा कछ दभाकर के समान वीरर्वािण मे ८८२ वर्ष में शीघ्र ही नही ऊग निकली
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