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________________ है और अमुक आचार्य या पन्यास देवद्रव्य को आगमोक्त बतला रहे हैं, यह सब कुछ जंगल मे रूदन करने के समान है। मैं यहा पर पनः इस को स्पष्ट किये देता हूँ कि वर्तमान विद्यमान अंगसूत्रों मे देवद्रव्य शब्द या उसके विषय का एक भी उल्लेख नहीं मिलता, उसका विधान नहीं मिलता, एवं अंगसूत्रो मे दी हुई कथाओ तक में भी उसका कही उल्लेख नही मिल सकता। आप यह न समझें कि सूत्रो मे उसका उल्लेख करने का प्रसग ही नही आया होगा, यह बात नही है। सूत्रो मे बहुत जगह पुण्यबन्ध और पापबन्ध से लगती तथा देवगति एव नरकगति के कारणो से लगती अनेक कथाये आई हैं उनमे कहीं पर भी पिछले साहित्य के समान-१ "बड़तो जिण्दब्बं तित्थयत्त लहइ जीवो" "२ रख्तो जिणदव्ब परित्त-ससारिओ भणिओ" "३ भक्खतो अणतससारिओ भणिओ" "४ जिणधणमविस्वमाणो . दल्लहवोहि कण्इ जीवो" "५ दोहतो जिण्दव्ब दोहिच्च दुग्गय लहइ” ऐसा एक भी उल्लेख मुझे नही मिलसका, इसी कारण वर्तमान आचायो और धनाढयो के अति प्रिय देवद्रव्य सिद्धान्त के लिये मझे उपरोक्त प्रामाणिक अभिप्राय बतलाना पड़ा जो बात अगसत्र के मल पाठो मे नही है वह अगो के उपांगो. नियक्तियो, भाष्यो, वर्णियो, अवचर्णियो और टीकाओ मे कहां से हो सकती है? उपाग, नियुक्तिया, भाष्य, चूर्णिया अवचूर्णिया और टीकाये इसी लिये लिखी जाती है कि किसी तरह मूल का अर्थ स्पष्ट हो। परन्तु मल मे रही हुई किसी तरह की अपूर्णता को पूर्ण करने के लिये मूल पर भाष्य चूर्णिया आदि नही रची जाती। मेरी मान्यतानुसार मूल के व्याख्यानरूप लिखे हुये ग्रन्थो मे जिसकी गन्ध तक नही वैसा देवद्रव्य शब्द या उससे लगती हुई बात किसी भी प्रकार मभवित नही हो सकती। तथापि यदि उन ग्रन्थकागे ने अपने २ वातावरण और परिस्थिति का अनुसरण करके मूल मे लगते हुये उन ग्रन्थो मे कही पर यह निर्मल उल्लेख किया भी हो तो चैत्य शब्द के जिनगृह और जिनबिम्ब अर्थ के समान उसकी प्राचीनता या विधेयता सिद्ध नही हो सकती,र परन्तु वह उल्लेख परिस्थितिजन्य होनेवाले कितने एक प्रक्षेपो मे से एक प्रक्षेप गिना जा सकता है। मैं तो यह भी मानता हूँ कि श्रमण ग्रन्थकार जो पाच महाव्रत के पालक है, सर्वथा हिसा नहीं करते, न कराते और उसमे सम्मति भी नही देते, जिनके लिये किसी प्रकार का द्रव्यस्तव विधेयरूप नहीं हो सकता, वे १जिनद्रव्य को बढाता हुआ प्राणी तीर्थकरन्व प्राप्त करता है। २ जिनद्रव्य की हिफाजत करता हआ जीव अल्पससारी होता है ३ जिनद्रव्य को खाता हुआ जीव अनन्त समारी होता है ४ जिनधन की उपेक्षा करता हआ प्राणी दर्लभ बाधी होता है। ५ जिनद्रव्य का द्रोह करनेवाला जीव दर्गति प्राप्त करता है। (मबोधप्रकरण ) 14
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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