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________________ से व्यक्तियों का आचार किसी प्रकार के स्पष्ट विधान बिना सर्वसाधारण का आचार नहीं हो सकता। यदि व्यक्तियों के आचरण पर से ही आचारों के विधान की कल्पना की जाती हो तो फिर आचार के या विधिविधान के स्वतंत्र ग्रन्थ रचने की आवश्यकता ही क्या है ? कथानुयोग से ही सब विधिविधानों का कार्य चल जाता हो तो चरणकरणनुयोग की अधिकता करना व्यर्थ है और भले या बुरे आचरण करने वालों की कथा परसे ही यदि उन आचारों की नियमबद्ध संगठना की जाती हो तो नीतिग्रन्थों या कायदे के ग्रन्थों की आवश्यकता ही क्यों पड़े ? जब आचार के ग्रन्थ जुदे ही रचे गये हैं और उनमें प्रत्येक छोटे बड़े आचारों का विधान किया गया है तथापि उनमें जिस विधान की गध तक नहीं मालूम देती हो उस विधान के समर्थन के लिये हम कथाओं का आश्रय लें या किसी के उदाहरण दें तो यह तमस्तरण नहीं तो और क्या है ? मैं यह बात हिम्मत पूर्वक कह सकता हूँ कि मैंने मुनियों या श्रावकों के लिये देवदर्शन या देवपूजन का विधान किसी भी अगसूत्र में नहीं देखा, इतना for भगवती आदि सूत्रों में कई एक श्रावकों की कथायें आती हैं, उनमें उनकी चर्याका भी उल्लेख है, परन्तु उसमें एक भी शब्द ऐसा मालूम नहीं होता कि जिसके आधार से हम अपनी उपस्थित की हुई देवपूजन और सम्बन्धित देव द्रव्य की मान्यता को घडी भरके लिये भी टिका सकें। मै अपने समाज के धुरन्धर कुलगुरुओं से नम्रता पूर्वक यह प्रार्थना करता हूँ कि यदि वे मुझे इस विषय का एक भी प्रमाण या प्राचीन विधान विधिवाक्य बतलायेंगे तो मैं उनका विशेष ऋणी होऊंगा। कदाचित् इससे कोई बन्धु यह समझने भूल न कर बैठे कि लेखक मूर्तिवादका विरोधी है। मैं प्रथम इस बात का खुलासा कर चुका हूँ और फिर भी कहे देता हूँ कि मैं इस बात का विरोधी नहीं हूँ, परन्तु जहाँ तक मैंने गवेषण की है इस विषय में सत्य हकीकत आपके सामने रखना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ । इस विषय को आवश्यकता के प्रमाण में मै उपयोगी समझता हूँ । एव कामचारी तथा सत्सग, शास्त्राध्ययन, तप शील आदि के समान तरतमता से मूर्तिवाद में भी आत्मविकाश की निमित्तता देख रहा हूँ, और मानता हूँ, तथा दूसरो को बतला भी रहा हूँ। वर्तमान उपदेशकों में और मुझमें मात्र इतना ही फर्क है कि वे इस वाद का एकान्तपूर्वक विधान करते हैं। और उस विधान को पुष्ट करने के लिये उसे भगवान वर्धमान के नाम या उनके अग प्रवचन के नाम पर चढाते हैं एव तदर्थ ऐसी ही कितनी एक कथाओं का आलम्बन लेते हैं, परन्तु मैं इस वादके विषय में स्पष्ट शब्दों में यह कहता हूँ कि भले ही यह वाद भगवान 72
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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