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उसकी पूजकता का सौभाग्य इसी समाज ने प्राप्त किया है? अपने इस समाज की ऐसी स्थिति देखकर मूर्तिपूजक के तौर पर मुझे भी बड़ा दुःख होता है।
मैं पहले एक प्रमाण में यह बतला चुका हूँ कि हमारे पूर्वजों ने चैत्यों को पूजने के लिये नही बल्कि उस मरने वाले महापुरूषों की यादगार के तौर तर निर्माण किये थे । परन्तु बाद मे उनकी पूजा प्रारंभ हो गई थी और वह आज तक चली आ रही है। जो मनुष्य पदार्थ के विकाश क्रम के इतिहास को समझ सकता है वही पूर्वोक्त विषय को सहज में समझ सकेगा । परन्तु जिसके मन में वर्तमान धर्म, उसके वर्तमान नियम और उसमे पूर्वापर से घुसी हुई कितनी एक असगत रूढ़ियां एवं वर्तमान मूर्तिपूजा वगैरह अनादि कालीन भासित होता होगा, राजा भरत के समय का प्रतीत होता होगा उसे तो मैं शास्त्र पढ़ने का निवेदन करने के सिवा अन्य कुछ नही समझा सकता। आप इस बात को भली प्रकार जानते हैं कि बढका बीज कितना सूक्ष्म और हलका होता है, परन्तु समय पाकर अनेक प्रकार के अनुकूल संयोग मिलने से वही बीज ऐसा रूप धारण कर लेता है कि जिसकी कल्पना करना भी हमे कठिन प्रतीत होता है । पहाडों से निकलने वाली नदियें छोटे से श्रोत के रूप मे जन्म लेती हैं, परन्तु ज्यो २ वे अपने जन्मस्थान से अधिक दूरी पर आती जाती है। त्यो २ अधिकाधिक बढती हई भयानक प्रवाह वाले रूप को धारण कर लेती है, इसी तरह हर एक पद्धति जिसका प्रारंभ बिलकुल सादा और अमुक हेतु पर अवलम्बित होता है वह समय पाकर इतना बडा और विचित्र रूप धारण कर लेती है कि जिससे हमे उसकी प्रारंभिक स्थिति को समझना या समझाना बड़ा कठिन मालूम होता है। जो चैत्य यादगीरी के लिये बनाये गये थे समय पाकर वे पूजे जाने लगे, उनमें चरण पादुकायें देव कुलिकाये होने लगी, उनमे चरण पादुकायें स्थापित होने लगीं और बाद में भक्तजनो की होश से भक्ति आवेश से उन्ही स्थानो में बडे २ देवालय एवं बडी २ प्रतिमाये भी विराजित होने लगी । यह स्थिति इतने मात्र से ही न अटकी, परन्तु अब तो गाव गाव मे और गाव मे भी मुहल्ले मुहल्ले में वैसे अनेक देवालय बन गये है एव बनते जा रहे हैं। ऐसा होने से मेरी समझ के अनुसार - 'अतिपरिचयाद् अवज्ञा' हो रही है, क्योंकि अब तो जहाँ पर देवालय बनाया जाता है, देवालय बनाने वाला भक्त कोई विरला ही वहाँ के स्थान सौन्दर्य या वातावरण सौन्दर्य की ओर ध्यान देता है, इस बात की तरफ लक्ष्य ही नही दिया जाता । बडे : शहरों में मैंने ऐसे भी देवालय देखे हैं जो घनी वस्ति के बीच अशान्त प्रदेश मे उपस्थित है और जिनके सामने ही भक्तजनों के संडास - टट्टियां एव पेशाबघर सुशोभित हो रहे हैं। बम्बई में श्री गोडीपार्श्वनाथ जी के मंदिर के पीछे बिलकुल लगते हुये हमारे गौतमावतारों के? सडास और पेशाब के
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