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________________ दुसरे मर्द में विशेष स्पष्ट करना चाहता है, तथापि संक्षेप में इतना बतला देने की आवश्यकता प्रतीत होती है कि हमारे बाप दादाओं द्वारा बोये हुये इस वृक्ष पर आज तक कितने और कैसे २ मीठे फल पकते आये हैं। १. श्वेताम्बर संप्रदाय स्पष्टतया जुदा हुये बाद वीरात् ८८२ वें वर्ष में उनमें का विशेष भाग चैत्यवासी बन गया। २. वीरात् ८८६ वें वर्ष में उनमें 'ब्रह्मदीपिका, नामक नये संप्रदायका प्रारंभ हुआ। ३. वीरात् १४६४ वे वर्ष में 'वडगच्छ' की स्थापना हुई। ४. विक्रमात् ११३९ वे वर्ष में 'षट्कल्याणकवाद' नाम से नया मत प्रचलित हुआ। ५. क्रिमत् १२०४ वे वर्ष में 'खरतर' संप्रदाय का जन्म हुआ। ६. विक्रमात् १२१३ वे वर्ष में 'आंचलिक' मत का प्रादुर्भाव हुआ। ७. विक्रमात् १२३६ वे वर्ष में 'सार्धपौर्णिमीयक' मत निकला। ८. विक्रमात् १२५० वे वर्ष में 'आगमिक' मत का प्रारम्भ हुआ। ९. विक्रमात् १२८५ वे वर्ष में 'तपागच्छ' की नीव रक्खी गई। १० विक्रमात् १५०९ वे वर्ष में 'लंकामत' का बीजारोपण हुआ और १४३३ वे वर्ष में उस मत का साधुसंघ स्थापित हुआ। ११. विक्रमात् १५६२ वे वर्ष में 'कटुकमत' प्रचलित हुआ। १२. विक्रमात् १५७० वे वर्ष में बीजामत प्रगट हुआ १३. विक्रमात् १५७२ वे वर्ष में श्रीपावचद्रसूरि ने अपना पक्ष स्थापन करने की गुजरात के वीरमग्राम में कमर कसी इसके उपरान्त इसी वृक्ष की शाखायें ढूंढ़िया, तेरापथी, भीखमपथी, विधिपक्षी और तीन थइया वगैरह फली फली हैं। चौथ पंचमी का झगड़ा, अधिक मासका झगड़ा, चतुर्दशी और पूर्णिमा का झगडा, उपधान का झगड़ा, श्रावक प्रतिष्ठा विधि करा सके या नहीं? इस बात का झगड़ा इत्यादि अनेकानेक विषवेले इस वृक्ष पर चारों तरफ से लिपट रही हैं। इन झगड़ों को मजबूत बनाने के लिये इन पर अनेक ग्रन्थ भी लिखे जा चुके हैं और वर्तमान में भी हमारे बुजुर्ग कुलगुरूओं ने उस प्रकार के ग्रन्थ लिख कर
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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