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________________ 42 अर्थात जबूस्वामी के निर्वाण के बाद निम्नलिखित दस बाते विच्छेद हो गई है। १ मनपर्यवज्ञान, २ परमावधि ज्ञान, ३ पुलाकलब्धि, ४ आहारक शरीर, ५ क्षपकश्रेणी, ६ उपशम श्रेणी, ७ जिनकल्प, ८ संयमत्रिक ( यथाख्यात संयम, परिहार - विशुद्धिक सयम और सूक्ष्म सपराय संयम) "केवल ज्ञान और १० वाँ सिद्धि गमन" । इससे यह बात स्पष्ट मालूम हो जाती है कि जबस्वामी के बाद जिनकल्प का लोप हुआ बतला कर अबसे जिनकल्प की आचरणा को बन्द करना और उस प्रकार आचरण करने वालो का उत्साह या वैराग्य भंग करना, इसके सिवा इस उल्लेख में अन्य कोई उद्देश मुझे मालूम नही देता । मैं सिर्फ जिनकल्प लोप होने का ग्रन्थपाठ बतला सकता हूँ, परन्तु वह पाठ कब का है ? और किस का रचा हुआ है? इस विषय मे कुछ नही कह सकता । तथापि इस पाठ को देवर्धिगणी के समय तक का मनने मे कोई सदेह मालूम नही देता, अर्थात् इस पाठ का आशय परम्परा से चला आता हो. और इसी से सूत्र ग्रन्थो मे भी इसे श्रीदेवर्धिगणी जी ने समाविष्ट कर दिया हो तो यह सभवित है। जबूस्वामी के निर्वाण बाद जो जिनकल्प विच्छेद होने का वज्रलेप किया गया है और उसकी आचरणा करने वाले को जिनाज्ञा बाहर समझने की जो स्वार्थी एव एक तरफी दभी धमकी का ढिढोरा पीटा गया है. बस इसी मे श्वेताम्बरता और दिगम्बरता के विषवृक्ष की जड समाई हुई है। तथा इसके बीजारोपण का समय भी वही है जो जबस्वामी के निर्वाण का समय है। इस गवषण के उपरान्त भी उसी. समय में इसके प्रारभ के और भी अनेक प्रमाण मिलते है। जिनमे से एक बौद्धग्रन्थों और दूसरा दिगम्बरो की पट्टावली में मैंने स्वय अब लोकित किया है । बुद्ध धर्मानुसारी सूत्रपिटक, १ 'मज्झिमनिकाय' नाम ग्रन्थो मे से एक इस * विशेषावश्यक भाष्य (य०प्र०पू० १०३५) विशेषावश्यक के इस उल्लेख को भाष्यकार श्री जिनभद्रसूरि ने जिनवचन याने तीर्थंकर का वचन बतलाया है और टीकाकार श्री मल्लधारी हेमचंद्र जी ने भी मक्खी पर मक्खी मारने के समान उसी बात को दृढ की है। बलिहारी है श्रद्धान्धता की ? गाथा मे लिखा है कि जबू के समय ये दस बाते विच्छेद हो गई, इस प्रकार का, उल्लेख, तो वही कर सकता है कि जो जबूस्वामी के बाद हुआ हो। यह बात मैं विचारक पाठको से पूछता हूँ कि जबूस्वामी केबाद कौन सा २५ वाँ तीर्थ कर हुवा है कि जिसका वचनरूप यह उल्लेख माना जाय? यह एक ही नही किन्तु ऐसे सख्याबद्धा उल्लेख हमारे कुल गुरूओ ने पवित्र तीर्थंकरो के नाम पर चढ़ा दिये है। जिससे हम विवेक पूर्वक कुछ भी नही विचार सकते। क्या यह कुछ कम तमस्तरण है? १ - "एव मे सुत - एक समय भगवा सक्केसु विहरति सामगामे तेन खो पन समयेन निगठो नातपुत्तो +++ होति, तस्म भिन्ना निगठा द्वेधिकजाता, भण्डनजाता, कलहजाता, विवादापन्न अञ्ञमञ्ञ मुखमत्तीति वितुदता विहति" अर्थात् मैंने ऐसा सुना है कि एक समय भगवान बुद्ध शाक्य देश में श्याम ग्राम मे विचरते थे, उस समय ज्ञात पुत्र भी थे। ज्ञात पुत्र के निर्ग्रन्थों में कलह हुआ था। वे जुदे होकर परस्पर बकवाद करते विचरते थे, • A A ,
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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