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विषय को शीघ्र समझ लेते थे और शीघ्र अंगीकार करके अपने आचरण मे घटित परिवर्तन कर लेते थे। प्रारंभ में भले ही अपनी स्वीकृत सुखशीलता की चुस्तता के कारण या अन्य किसी कारण उन्होने वर्धमान या उनके स्थविरो के साथ भिन्न धर्मों के समान वर्ताव किया हो, परन्तु जब वे परस्पर विशेष समागम में आये तब समागम मे आने वाले प्रत्येक पार्श्वनाथ सन्तानीय ने वर्धमन का कठिन मार्ग अंगीकार किया है। यह बात सूत्रों मे उल्लिखित पार्श्वपत्यो के प्रत्येक उल्लेख के अन्त मे बड़े सरल और निखालस शब्दो मे आज भी स्पष्टरूप से झलक रही है, ये शब्द ही पाश्र्वापत्यों की ऋजुता और प्राज्ञता की साधना के लिये पर्याप्त है । परन्तु उनके दोनो गुणो का सुखशील आचारो के साथ कुछ भी सम्बन्ध हो यह बात मुझे भासित नही होती । पार्श्वनाथ के बाद दीर्घतपस्वी वर्धमान हुये, उन्होंने अपना आचरण इतना कठिन और दुस्सह रक्खा कि जहाँ तक मेरा ख्याल है इस तरह का कठिन आचरण अन्य किसी भी धर्माचार्य ने आचरित किया हो ऐसा उल्लेख आज तक के इतिहास मे नही मिलता।
आत्मभाव
जिस प्रकार परदेशियों की, परदेशी पदार्थो की और परदेशी रीतिरिवाजो की गुलामी मे जकडी हुई वर्तमान भारतीय प्रजा को जहाँ तक बन सके सादगी की आवश्यकता है, बन सके उतना स्वदेशीमय बनने की जरूरत है और शक्य प्रमाण मे अपनी आवश्यकताओ को कम करके सुखशीलता को छोड आदर्श पुरूष परम त्यागमूर्ति महात्मा गाधी के मार्ग पर चलने की जरूरत है, इसी प्रकार आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पहले धर्मगुरूओं में घुसे हुये विलास को दूर करने के लिये और धर्मगुरूओ की ओर से प्रजा पर पडे हुये भार को हलका करने की खातिर आदर्श मे आदर्श त्याग, और परम सत्य के सदेश की आवश्यकता थी। इसी कारण वर्धमान ने अपनी भरजवानी मे ही सयमी होकर अपने आचरण को इतना कठिन कसा था कि जिस कठिनता की कल्पना को भी आधुनिक मनुष्य नही पहुँच सकता। इसी कठिनाई के प्रभाव से उस समय के धर्मगुरूओ मे पुन त्याग का संचार हुआ और इससे वे निर्ग्रन्थ के नाम को शोभायमान करने लगे। उस वक्त जो नये निर्ग्रन्थ बनते थे शक्यतानुसार वर्धमान का ही अनुसरण करते थे। इस प्रकार एक दफा पुनरपि भारत में त्याग का धर्म पराकाष्ठा पर पहुँच चुका था।
ज्यो गाडी का पहिया फिरा करता है, प्रकाशके बाद अन्धकार आया करता है. आताप के बाद छाया आती है त्यो भारतवर्ष मे उस समय की झलकती हुई त्याग की ज्योति अमावस्या की कालरात्रि के तिमिर मे विलीन