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इससे पाठक स्वयं समझ सकेंगे कि श्वेताम्बरता और दिगम्बरता की दीवार केवल आग्रह की नीव पर ही चिनी गई है। वस्त्र पात्र के लिये दोनों संप्रदाय के प्राचीन ग्रन्थों का एकसा ही अभिप्राय है, तथापि वर्तमान में इस विषय में दोनों संप्रदायों मे जो भीषण मतभेद देख पड़ता है उसका मूल कारण, दोनों संप्रदाय के पूर्व धर्मगुरूओ और आज कल के कुलगुरूओं का दुराग्रह, स्वाच्छन्द्य, शैथिल्य और ममक्षता का अभाव इत्यादि के सिवा और कछ नहीं हो सकता। किसी एक ऐसे विद्वान को जिसे श्वेताम्बर और दिगम्बरता की अभी तक ब भी न लगी हो दोनो संप्रदाय के प्राचीन ग्रन्थों में बतलाये हुये आचार विभाग का अध्ययन करने का कार्य सोपा जाय तो वह उनका अध्ययन करने पर इस बात का निर्णय करने की उलझन में पड जायगा कि इनमें कौन-सा श्वेताम्बर और कौन-सा दिगम्बर ग्रन्थ है, इतनी साम्यता है। क्या कोई साधारण बुद्धि वाला मनुष्य यह बतला सकता है कि जो क्रीश्चियन छरी कांटे से खाते हैं और जो क्रश्चियन हाथ से खाते हैं वे दोनों जुदे जुदे धर्म वाले हैं, या एक हस्तभोजी मतका क्रीश्चियन और दूसरा छरीकांटा मत का क्रीश्चियन है। यदि ये दोनों श्रीश्चियन जुदे जुदे हो सकते है तब ही श्वेताम्बर और दिगम्बर जदे जदे हो सकते हैं। अन्यथा उनकी जुदाई तो दूर रही परन्तु उनके श्वेताम्बर और दिगम्बर नाम तक भी सभवित नहीं होते
अब हमे श्वेताम्बरता और दिगम्बरता की जडकी ओर दृष्टि फेरनी चाहिये कि जिसका अबसे २०००-२२०० वर्ष पहले अकूर फूटा था और तभी से उस पर आग्रह का जल डाल डाल कर उसे पुष्ट एवं सुदृढ़ किया गया है। यह बात तो हम सुनते ही हैं कि श्री वर्धमान के समय भगवान पार्श्वनाथ साधु भी थे, जिन्हें कि ऋज प्राज्ञ मानते हैं। जहा तक मैं समझता हं सभ्य संसार में यह असंभवित है कि जो विवेकी और सरल हो वह जड और वक्रकी अपेक्षा अधिक आराम तलब हो या आराम तलबी की विशेष छूट ले। मेरी मान्यता के अनुसार जड और वक्र मनुष्यों की अपेक्षा ऋजु और प्राज्ञ पुरूषों पर विशेष जवाबदारी रहती है। जिस तरह का आचरण वे करेगे वैसे ही आचरण की तरफ वक्र और जड बुद्धि वाले, मनुष्यो की प्रवृत्ति को तो यह बचाव करने की छूट है कि जैसा विवेकी आचरण करे वैसा ही करना हमारे लिये भी हितकर है। ऐसा होने के कारण विवेकी और सरल मनष्यों को अपना आचार ऐसा सुदृढ़ एवं अपवाद रहित रखना चाहिये कि जिससे उनके पीछे चलनेवाला वर्ग भी सदृढ़ और निरपवादि आचारो को पाल सके। इस तरह की वस्तुस्थिति होने पर भी हमारे सुनने में आता है कि ऋजु और प्राज्ञ साधओं की अपेक्षा वक्र और जड साधओं का आचार विशेष कठिन एव