________________
15
'मानों लोक विकाश का संहार करने के लिये कोई पिशाच ही न आया हो ? !! उस समय "मां हिंस्यात् सर्वभूतानि" "सत्यं वदेत् नानृतम्" इत्यादि सत्योंका उपदेश करते हुये वैदिक धर्म ने पशुवध और नरवध तक को भी धर्मतया स्वीकृत किया था । " आत्मवत् सर्व भूतेषु" के सिद्धान्त को उद्घोषित करते हुये वैदिक मतने मानों ब्राह्मण सिवास अन्य मनुष्य ही नही हैं, यह समझ कर समस्त अधिकार ब्राह्मणों को देकर दूसरों को उससे सर्वथा वचित रक्खा था। सत्य वदेत् नानृतम् के नियम पर रचे हुये वैदिक दर्शन ने उस समय के मानव समाज के पैरों में बैड़ियां पहनाई थीं और हाथों को जकड़ दिया था। इसी कारण उस समय के समाज का मुख पोषण विहीन होने से विनाशकी अणी पर उसकी राह देख रहा था। पादे कुठार. करके उन चतुर ब्राह्मण गुरूओं ने भी ऐसी भयकर भूल की थी कि जिसके परिणाम में वर्तमान भारत अज्ञानता चिकने कीचड़ में धस कर आज भी पारतन्त्र्य की विषम यातना सह रहा है।
उन ब्राह्मणो ने उस समय के भोले भाले समाज को यह उपदेश दिया था, कि हम जो कहें वही सत्य है, हमारे कथन में किसी को शंका या प्रश्र करने का अधिकार नही है। हमारा निर्णय ईश्वरीय निर्णय है, क्योंकि हम ईश्वरीय प्रतिनिधि हैं । शूद्र नीच मे नीच होने के कारण उन्हें नगर में या गाव मे रहने का अधिकार नहीं । यदि वे नियत किये हुये समय के बिना गांव में तथा नगर में आवे तो उन्हे प्राणदण्ड की शिक्षा देना यह राजा का कर्त्तव्य है, ऐसा न करने वाला राजा गर्भपात के पापका भागी बनता है। शूद्रो को घरवार का जजाल छोड़कर ईश्वर का नाम लेने का परब्रह्मोपासना का भी अधिकार नही । क्षत्रिय और वैश्य भी हमसे नीचे ही हैं। हम धार्मिक विधिविधानों में उनका हस्तक्षेप न होने देंगे। हम कहे वैसा करना ही उनका धर्म है । वेदाध्ययन करने का उन्हें अधिकार नहीं, ईश्वर की सन्तान होने के कारण हम ही वेदो के उत्तराधिकारी हैं, हमारा कथन सबके लिये ईश्वरीय फर्मान है विशेष क्या लिखू वर्तमान समय मे जिस तरह गौरांग, श्यामांगों पर अपनी अदमनीय सत्ता का उपयोग कर रहे हैं, वैसी ही कठिनाई युक्त सत्ता ब्राह्मण गुरूओ ने समाज पर चलाई थी। मेरी मान्यता के अनुसार इसका
१ शूद्राद् ब्राह्मण्या चण्डाला xxx कक्षे झल्लरीयुक्त पूर्वाहे मलान्यपकृष्य बहिरपोयति । ग्रामाद् बहिदूरे स्वजातीयै निवसेत् । मध्याह्नात् पर ग्रामे न विशत्ययम्, विशेच्चेद् राज्ञा वध्य, अन्यथा भ्रूणहत्या मवाप्नोति (वैखानस धर्म प्रश्र पृ० ४८ ) ।
२ न्यायवान् कहलाने वाले राजा रामचन्द्र ने अपने ब्राह्मण गुरूकी आज्ञासे मात्र सन्यासी बन जाने के अपराध में शूद्रक राजाके प्राण लिये थे, (देखो सीता नाटक)।