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________________ 13 नही चूकते, तभी तो उन इष्ट परिवर्तनों में अनिष्ट परिवर्तन सम्मिलित हो जाते हैं और फिर पीढ़ी दर पीढी में होने वाले उपदेशक या उपासक उसी अनिष्ट परिवर्तन को परिपुष्ट करतेरहते हैं। शास्त्रो मे उसका सम्मिश्रण करते हैं इतना ही नहीं अपने पूज्य पुरूष के नामपर चढ़ा कर उसे वज्र लेपके समान दृढ करते हैं । जब समाज अनेकानेक वर्षों तक इन अनिष्ट परिवर्तनों का आदि बन जाता है- इनमें रूढ़ हो जाता है तव अनिष्ट परिवर्तन ही उसके धर्म, सिद्धान्त और कर्तव्यका रूप धारण कर लेते हैं, फिर उसके फल स्वरूप शान्ति की जगह क्लेश, आरोग्य की जगह बीमारी, धनाढ्यता की जगह दरिद्रता, स्वातन्त्र्य की जगह गुलामी आदि नरक से भी भयकर यातनाये सहन करनी पडती हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि वर्तमान जैन समाज प्रस्तुत परिस्थिति का अच्छी तरह अनुभव कर रहा है, तथापि ऊंची आखे उठा कर वह अपनी दुर्दशा पर दृष्टिपात नही करता? मानो पूर्वोपार्जित का प्रायश्चित ही न कर रहा हो, इस तरह मौन मुख होकर सब कुछ सहन कर रहा है। एक रोगी को रोगदूर करने के लिये किसी एक वैद्याने तमाकू खाना बतलाया। रोगी ने जन्म से कभी तमाकू न खाया था, अत प्रारम्भ में खाना तो दूर रहा, परन्तु उस तमाकू की गन्ध सहन करना भी दुष्कर हो गया। रोग दूर करने में तमाकू खाना आवश्यक होने के कारण उसने धीरे धीरे आदत sai | बहुत दिन खाते रहने से अब उसे तमाकू से वह घृणा नहीं रहीं, अब वह खुशी से तमाकू खाता है। तमाकू खाने का अब इतना आदी बनगया कि तमाकू तो महादेवजी को भी प्यारी है, ऐसा कह कर अपनी निर्दोषता स्थापित करने के साथ साथ तमाकू की देवप्रियता का भी वर्णन करने लगा। परिणाम यह हुआ कि उसका रोग तो नष्ट हो गया, किन्तु तमाकू की बीमारी घुस गई। तमाकू बतलाने वाले वैद्यनें कहा कि अब तुम्हे तमाकू सेवन की आवश्यकता नही, परन्तु पौष्टिक पदार्थ दूध, मलाई, मावा वगैरह खाने की जरूरत है । तमाकू के भक्तो को यह बात न रूचि, उसके मन तो तमाकू ही मलाई और मावासे बढ़ कर मालूम दी । एक समय तमाकू की ओर घृणा से देखने वाले के मुख. कमल मे अब जब देखों तब तमाकू लक्ष्मी ही निवास करती नजर आती है । तमाकू व चूना मसलते मसलते उसकी हथेलिया लाल हो गई इतना ही नही किन्तु अब उसके घर की दीवारें तक भी तमाकू के रंग से रगी गई। अन्त में उस मनुष्य ने दुःखित जीवन बिताकर प्राणों का परित्याग किया, परन्तु तमाकू न छुटी । इसी प्रकार कितने एक इष्ट परिवर्तन भी उस तमाकू के समान ही है। हर एक मनुष्य को परम सत्य के साथ साख्यभाव प्राप्त करने के लिये प्रारंभ में उन परिवर्तनों का आश्रय सेना
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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