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________________ 10 जैन दर्शन का यह सिद्धान्त तत्वावाद एवं आचारवाद में सर्व व्यापी होने के कारण अपना अपरनाम, अनेकान्त दर्शन, भी धारण करता है। उसका यह सिद्धान्त प्रकृति के नियमानुसार है। प्रकृति की ऐसी रचना है कि सयोग वश वज्र जैसा सघन या कठिन और गुरूतम पदार्थ भी नरम प्रवाही जैसा हो जाय और नरम प्रवाही पदार्थ वजके समान धन एवं कठोर बन जाता है। यह बात व्यवहारिक है, अनुभव प्रतीत है और प्रयोगशाला देखने वाले को प्रत्यक्ष सिद्ध है, तब फिर श्री वर्धमान के समय के उपदेश, आचार, विचार, या तत्ववाद परिवर्तित हों तो इसमें कोई नवीनता नहीं। वर्तमान समय मे श्री वर्धमान के जैसे शरीर, वृत्तिया, वस्त्र, घर, वैभव या मनुष्य इत्यादि में कुछ भी एक रूप से स्थिर न रहा एव परम्परागत एकाकार में आज कुछ भी उपस्थित नहीं देख पडता, इतना ही नहीं बल्कि उसमें इतना भारी परिवर्तन हो गया है कि श्री वर्धमान के समय का कोई क्षत्रियकुण्ड का रहने वाला आज आकर अपने गाव को देखे तो वह देखकर एकदम यह नहीं समझ सकता कि यही वह क्षत्रियकुंड है जिसमें कि वह निवास करता था। रातदिन के समान यह परिवर्तन क्रम जितना अनिवार्य है उतना ही उपयोगी भी है। यदि यह परिवर्तन की प्रथा न होती तो स्वभावतः नित्य नई रूचि वाले मनुष्यों को इस संसार मे जीवन बिताना मुश्किल हो जाता। ___ यहा पर पाठक मुझसे यह प्रश्र कर सकते है कि यदि यह परिवर्तन क्रम वस्तुमात्र के साथ समान रूप से सम्बन्ध रखता है तो जैन साहित्य को भी लागू पडे इसमें उसका विकार ही क्या? और उस विकार से हानि ही क्या? मझे नम्रता पर्वक कहना चाहिये कि परिवर्तन के दो प्रकार हैं, एक परिवर्तन विकाश गिना जाता है और दूसरा विकार कहलाता है। एक मनुष्य नियमित रूपसे निरन्तर पथ्य आहार ग्रहण करता हो उसका जठर उस संकलय्य पुस्तकारूढ़ा कृता। ततो मूलो गणधर भापितानामपि तत्सकलानानन्तर सर्वेषामपि आगमाना कर्ता श्रीदेवर्धिगणिक्षमाश्रमण एव जात (समय सुन्दर गणी रचित सामाचारी शतके) अर्थात् श्री देवर्षिगणी क्षमाश्रमने वारह वर्षीय दुर्भिक्ष के कारण बहुत से साधओं और अनेक बहुश्रुत स्थविरों के विच्छेद हो जाने पर श्रुतकी भक्ति से प्रेरित हो भावी प्रजाके उपकारार्थ श्री वीर निर्वाण से ९८० में वर्षमें श्री सबके आग्रह से उस समय मे बचे हुये साध समुदाय को बलमीपुर में एकत्रित कर उनके मुखसें अवशेष रहे हुये न्यूनाधिक घटित और अत्रुटित आगम के पाठ अपनी बुद्धिसे अनुक्रमतया सकलित कर पुस्तकारूढ किये। इस तरह प्रारभमें गणधरों द्वारा रचित होने पर भी सूत्र देवसिगणी आमाश्रमणसे पुन सकलित होने के कारण वर्तमान कालीन समस्त आगमों के कर्ता श्रीदेवार्धिगणी क्षमाश्रमण ही कहे जाते है।"
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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