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________________ 6 सिद्ध करने की दोनों की प्रवृत्ति सर्वथा जुदी जुदी थी। बुद्ध मध्यम मार्ग के उपासक ओर वर्धमान तीव्र मार्ग के हिमायती थे। बुद्ध ने अपनी मार्ग व्यवस्था में जनता के श्रेय को प्रथम स्थान दिया था, वर्धमान जनता के संस्पर्श तक का भी त्याग किया था। वर्धमान अपनी रहनी और कहनी में एक ही थे, उन्हें इस बात पर आग्रह कदापि न था कि मैं जो कहता हूं वही सत्य है और दूसरे का कथन सर्वथा मिथ्या है। वे इस बात को मानते थे कि एक ही लक्ष्य को सिद्ध करने के अनेक साधन हो सकते हैं, इससे साधन भेद में विरोध की गंध तक भी नहीं होती। उनके समय मे उनका अनुयायी वर्ग एक लक्षी था। परन्तु उन सबके मार्ग जुदे जुटे थे। कोई मुमुक्षु निराहारी रहता, कोई भोजन भी ग्रहण करता, कोई सर्वथा नग्न अवस्था सेवन करता, कोई सवस्त्र भी रहता था। कोई स्वाध्यायी था, कोई विनीत था और कोई ध्यान में ही मग्न रहता था । एव आत्मा को स्वस्थ करने के अनेक मार्ग थे, परन्तु लक्ष्य सबका एक ही आत्म स्वास्थ्य था । प्रत्येक प्राणी की शारीरिक, वाचिक और मानसिक स्थिति भिन्न भिन्न होने के कारण सब अपने २ अनुकूल और प्रकृति सात्म्य वाले मार्ग का अनुसरण करते थे। उस समय वर्तमान के जैसी किसी की एक हथ्थू सत्ता न थी कि जिससे सबको एकही प्रवाह में बहना पडे । मुमुक्षु ज्यो ज्यो विशेष योग्यता प्राप्त करते, त्यो त्यों अधिकाधिक वे उच्च साधन का अवलम्बित करते, किसी पर किसी का अमर्यादित दबाव न था । उनके अनुयायी वर्गका यह प्रघोष था कि धम्मो मगल मुक्कठ अहिंसा संजमो तवो। अर्थात् अहिंसा, सयम और तप रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है ( दशवैकालकि सूत्र प्रारंभ ) इस प्रघोष में कही भी एक देशीयता की गंध तक नही इस पर से श्री वर्धमान की जीवन दशा, उनके समयकी परिस्थिति और उनका ध्येय हमारी समझ मे आसकता है। अब हमें उनका शास्त्र साहित्य, उसकी मूल स्थिति और वर्तमान काल में देख पड़ती विकृत स्थिति के सम्बन्ध मे विचार करना चाहिये । यहा पर इस विषय में विशेष चर्चा करने से पहले मुझे मूल स्थिति और विकृत स्थिति के सम्बन्ध में इस प्रकार खुलासा करदेना उचित होगा कि जो महापुरूष मुख्य मार्ग का प्रवर्त्तक है, उसका लक्ष्य और साधन जिसमे यथस्थित रीत्या शैली मूल स्थितिकी और जिस रचना शैली में लक्ष्य की ओर दुर्लक्ष्य करके मात्र साधनों की ही तकरारों का कोलाहल देख पड़ता हो वह विकृत स्थिति समझना चाहिये। यह निबन्ध पूर्ण होते तक मेरा यह लक्षण पाठकों को अवश्य ध्यान में रखना चाहिये। अब मैं श्रीवर्धमान के समय की रचना शैली की तरफ आपका ध्यान खींचता हूं।
SR No.010108
Book TitleJain Sahitya me Vikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi, Tilakvijay
PublisherDigambar Jain Yuvaksangh
Publication Year
Total Pages123
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Devdravya, Murtipuja, Agam History, & Kathanuyog
File Size6 MB
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