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किसी तरह का विशिष्ट निशान न था, इसी कारण वे प्रतिमायें राजा संप्रति द्वारा बनाई हुई कही जाती हैं, उनमें कहीं पर भी इस प्रकार की निशानी नहीं मिलती और जो प्रतिमायें उस विवाद समय के बाद की अर्वाचीन हैं उनमें ये दोनों तरह की निशानी पाई जाती है, अर्थात् विवाद समय से वस्त्रधारित्व भी न था। इससे इन दोनों सप्रदाय की जिन प्रतिमाओ का आकार एक सराखा था, उनमें कहीं पर भी कुछ भेद न था।"
श्रीधर्मसागर जी ने इस विवाद के समय का उल्लेख नहीं किया तथापि उपदेशतरंगिणी में २४८-२४९ वें पृष्ठ पर दिये हुये उल्लेख से स्पष्ट तया मालूम हो सकता है कि वह विवाद जूनागढ़ के राजा खेंगार के राज्यकाल मे आम राजा के गुरू बप्पभट्टि सरि के समय हुआ था जो समय विक्रम की नवमी शताब्दी का प्रारभ था। उपरोक्त अनेक प्रमाणो से यह बात स्पष्ट होती है कि मर्तियों की नग्नता और वस्त्रधारिता बाद में ही बनाई गई है। हमारे दोनों सप्रदाय में नवमी शताब्दी के प्रारभ मे ही यह भेद दाखिल हुआ है। इससे पहिले हमारे दोनो भाइयों की मूर्ति और मूर्तिपूजा एक सरीखी ही थीं, इसके प्रमाणों की अब कुछ कमी नही है। वास्तविक स्थिति ऐसी होने पर भी वर्तमान मे ही हम मूर्ति ओर तीर्थ के लिये परस्पर विषकी वृष्ट कर रहे हैं। मुझे इसका कारण हमारे दोनो साम्प्रदायिक धर्म नेतओ के कदाग्रह के सिवा अन्य कुछ नही देख पडता। मैं सुनता हैं यदि उस प्रकार श्वेताम्बर
और दिगम्बर मूर्तिपूजा करते हो तो वैसी मूर्तिपूजा न करने मे ही कल्याण है। मक्षीजी मे अग्रेज सरकार ने श्वेताम्बर और दिगम्बरो के लिये पूजा करने का समय नियत किया हुआ है। तदनुसार श्वेताम्बरो की पूजा हुये बाद दिगम्बर भाई पधारते हैं और वे मति पर लगाये हये चक्ष तथा श्वेताम्बरो की की हई पूजा को रद्द करते हैं फिर इन्द्र पूज्य बनने की आशा से खुश होते हुये हमारे श्वेताम्बरों की पूजा की बारी आने पर वे उस मूर्ति पर फिर से चक्षु और टीका आदि लगा देते हैं। इस प्रकार का विधि किये बाद ही वे दोनों भाई अपनी २ की हुई पूजा को पूजारूप मानते हैं। परन्तु मैं तो इस रीति को तीर्थकर की भी नही मानता। यह तो ससार मे दो स्त्रीवाले भद्र पुरूष की जो स्थिति होती है उसी दशा में हमने अपने वीतराग देव को पहुंचा दिया है, यह हमारी किती कीमती प्रभु भक्ति है??? ऐसी भक्ति तो इन्द्र को भी प्राप्त नही हो सकती? मैं मानता हूँ कि यदि इस मूर्ति मे चैतन्य होता तो यह स्वय ही अदालत मे जाकर अपील किये बिना कदापि न रहती। यह मूर्तिपूजा नही। बल्कि उसका पैशाचिक स्वरूप है और तीर्थ के साथ सम्बन्ध रखने वाला 'क्लेश भी मर्ति पूजा का राक्षसी स्वरूप है।
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