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के लोगों ने श्रीनेमिनाथ की मूर्ति का सहर्ष स्नात्र वगैरह किया था (देखो सुकृतसागर पृ० ३०-श्लो० २१-२२। यदि ये दोनों सघ एक समान मूर्ति को न मानते होते तो एक ही श्रीनेमिनाथ मूर्ति का (बिना कुछ परिवर्तन किये) स्नात्रादि किस तरह कर सकते थे? और ११०० दिगम्बर भट्टारक गये थे, उन्हें मार्ग से देवदर्शन के लिये मंदिरो की आवश्यकता पडे यह संभवित ही बात है, परन्तु वस्तुपालने अपनी संघसामग्री में एक भी दिगम्बर प्रतिमा. साथ ली हो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता, इससे यह साबित होता है कि जो मंदिर वस्तपालने अपने साथ लिये थे उन्ही के द्वारा दिगम्बर भट्टारक भी जिनदर्शन करते थे। इससे यह बात भी सिद्ध हो सकती है कि वस्तुपालने अपने साथ ली हुई प्रतिमायें और मंदिर दोनों को) मान्य और पूज्य होने चाहियें। यदि श्वेताम्बर दिगम्बरो का मूर्ति साम्य न होता तो श्वेताम्बर वस्तुपालके संघ में दिगम्बर भट्टारको की स्थिति का पोषण किस तरह हो सकता था? (देखो उपदेशतरंगिणी पृ० २४७) इस सम्बन्ध मे श्रीधर्मसागर जी अपने प्रवचन परीक्षा नामक ग्रन्थ में निम्न प्रकार से उल्लेख करते हैं।
अथ दिगम्बरै यह सभावित भावि विवादभञ्जनाय संधेन यत् कृत तदाह"मा पडिमाण विवाओ होहि त्ति विचितिऊण सिरिसघो। कासी पल्लवचिधं नवाण पडिमाण पयमले ।। ६७।। तं सोउण रूट्टो दुटे खमाणो वि कासि न गिणत्त। निअ पडिमाणं जिणवरविगोवण सो विगयसन्नो ।।६८।। तण सपइपमहप्पडिमाण पल्लवकण नित्थ। अत्थि पुण सपईणप्पडिमाण विवाय कालाओ ।। ६९।। पुव्वि जिणपडिमाण नगिणत्त नेव न वि पल्लवओ। तेण नाSSगारेण मेओ उभएसि सभूओ ।।७०।।
प्रतिमा सबन्धी कलहो मा भद् इत्यमना प्रकारेण विचिन्त्य पार्यालोच्य, श्रीसघो नवीनप्रतिमाना अद्यप्रभति निर्मीयमाणाना जिनप्रतिमाना पदमले पादसमीपे पल्लवचिन्हं वस्त्रट्टलिका लक्षण लाज्छनमकार्षीत् - कृतवान् ।।६७।। अथ श्रीसघकृत्यमधिगत्य दिगम्बरो यद् व्यधात् तदाह-तत् श्रीजिनेन्द्र प्रतिमाना पदमूले श्रीसघकृत पल्लवचिन्ह ज्ञात्वा दुष्टक्षपण को रूष्टः क्रोधा विष्ट सन् x निजाना स्वायत्ताना जिनप्रतिमाना नग्नत्वं दृश्यमालनिग्डाद्यवयवत्वमकार्षीत्-अय भाव अहो! अस्मन्निश्रितप्रतिमाकारतो भिन्नताकरणाय यदि श्रीसघेन पल्लवचिन्हमकारि, करिप्यामस्तर्हि वयमपि श्वेताम्बर प्रतिमातो भिनत्वकरणाय किचिच् चिन्हमिति विचिन्त्य मत्सर
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