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________________ ( ६६ ) के अनुसार आत्मा अपने कर्मबन्ध काटकर सिद्ध हो जाता है । अभव्य जीव सिद्धत्व को प्राप्त नहीं कर सकते । आत्मा का नवम विशेषण है- स्वभाव से कर्ध्वं गमन। यह भी दार्शनिक शब्द है जिसके अर्थ हैं आत्मा का वास्तविक स्वभाव ऊर्ध्वगमन है । यदि इसके विपरीत उसका गमन होता है तो उसका कारण कर्म परिपाक है । कर्म-विरत होने पर मात्मा जहाँ तक धर्मद्रव्य उपलब्ध रहता है, उर्ध्वगमन करता है। मांडलिक प्रत्यकार की मान्यता है कि जीव सतत गतिशील है । इस प्रकार विवेच्य काव्य में जीव आत्मा से सम्बन्धित अनेक ऐसे ज्ञान तत्वों का प्रयोग हुआ है जिनके व्यवहार से जीव उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करता है। जीवन के लिए अनिवार्य है धर्म किन्तु उसका रूप एकान्त बाह्याचार कभी नहीं है । आचारः प्रथमो धर्मः अर्थात् आचार ही सर्वप्रथम धर्म है । आचार में मनुष्य के उन क्षेमकर प्रयत्नों की गणना है जो अन्तर्मुख हों । सदाचारी का हृदय अहंकार से रहित शुद्ध, समभाषी तथा सहानुभूति, क्षमा, शान्ति आदि धार्मिक तत्वों से सम्पन्न रहता है । सदाचार और धर्म में कोई भेद नहीं है । सदाचार से जीवन भौतिकता से हटकर आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होता है । सदाचार स्वयं हो आध्यात्मिकता है । इससे जीवन में स्फूर्ति और चैतन्य जाता है ।" १. अर्हत् प्रवचन, उपोदघात, सम्पादक पं० चैनसुखदास, न्यायतीर्थ, आत्मोदय ग्रन्थमाला, जयपुर, प्रथम संस्करण, १६६२, पृष्ठ १६ ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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