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( ५२ ) १. कोर २. मान ३. माया
४. लोम मात्र अठारहवीं शती के कविवर खानसराय विरचित 'श्री देवपूजा' में कवाय का प्रयोग द्रष्टव्य है।'
भनेक ऐसे शान-तत्वों की अभिव्यक्ति विवेच्य काव्य में द्रष्टव्य है जिमका उल्लेख अठारहवीं शती में उपलब्ध नहीं है। विकास की दृष्टि से ये सभी तत्व विशुद्ध जीवनोत्कर्ष के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। यहां हम उनका क्रमशः अध्ययन करेंगे।
अनुप्रेमा का अपर नाम भावना है। सुदीर्घ संसार से मुक्त होने के लिए जैन दर्शन में द्वादश- अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन करने की व्यवस्था है।
आनन्यवायक द्वादश अनुप्रेक्षाओं का विभाजन निम्न रूप से किया गया है।' यथा--
१. अध्रुव २. अशरण ३. एकत्व
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१. नाश पचीस कषाय करी है।
देश घाति छब्बीस हरी है ।
-श्री देवपूजा, धानतराय, बृहद् जिनवाणी संग्रह, सम्पादक, प्रकाशक पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगज, किशनगढ, राजस्थान, सन् १६५६, पृष्ठ ३०३ । णमिऊण सम्व सिद्ध झाणत्तम खविद दीह संसारे । दस-दस दो दो य निणे दस दो अणपेहणं वोच्छे ।। -कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक १, कुन्द-कुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण १६६०, पृष्ठ १३६ । अर्धवम सरण मेगत्तमण्ण संसार लोगम सुचित्त । आसव-संवर-णिज्जर धम्म बोहिं च बितेज्यो ।।
कुन्द -कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गायांक २, कुन्दकुन्दाचार्य जैन संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण, १६६०, पृष्ठ १३६ ।