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जीवादि तत्वार्थो का सच्चा बयान ही सम्यग्दर्शन है। इसमें सच्चे बेथ, शास्त्र और गुरु के प्रति श्रद्धान होता है ।"
जीवादि सप्त तत्वों का संशय, विपर्यय और अनव्यवसाय से रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है ।"
परस्पर faea अनेक कोटि को स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं । विपरीत एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं । 'यह क्या है ?' अथवा 'कुछ है' केवल इतना अरुचि और अनिर्णय पूर्वक जानने को अनध्यवसाय कहते हैं।'
आत्मस्वरूप में रमण करना ही चारित्र है। मोह-राग-द्वेष से रहित आत्मा का परिणाम साम्यभाव है और साम्यभाव की प्राप्ति ही चारित्र है । इसमें पाँच व्रत---अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पाँच समिति - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप, प्रतिस्थापन तथा तीन गुप्ति-मनो, वचन, काय- का संयोग रहता है ।"
रत्नत्रय का उपयोग केवल अठारहवीं शती के कविवर द्यानतराय द्वारा रचित पूजा - काव्यों में हुआ है। यह प्रयोग उन्नीसवीं और बीसवीं शती में १. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमपतोमृताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
- श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार, स्वामी समन्तभद्राचार्य, वीर सेवा मंदिर, सस्ती ग्रन्थमाला, दरियागंज, प्रथम संस्करण, वि० नि० सं० २४७६, पृष्ठ ४
२ पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कृतित्व, डा० हुकमचन्द्रभारिल्ल, पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४ बापूनगर, जयपुर, प्रथम संस्करण १६७३, पृष्ठ १५१ ।
सदनेकान्तात्मकेषु तत्वेषु । ine ferfaresयवसाय विविक्तकमात्मरूपं तत् ॥
३. कर्तव्यो व्यवसायः
-- पुरुषार्थ - सिद्धयोपाय, श्री अमृतचन्द्र सूरि, बी सेण्ट्रल जैन पब्लिसिंग हाउस, अजिताश्रम, लखनऊ, यू०पी०, प्रथम संस्करण १९३३, पृष्ठ २४ ।
४. असुहादो विणिविती सुहे पविती य जाण चारितं । मद समिदिगुत्तिरूवं जवहारणयायु जियमणियम् ||
हम संग्रह : श्री नेमीचन्द्राचार्य, श्रीमद् रामचन्द्र पन शास्त्र मामा, अमास, प्रथम संस्करण वि०सं० २०२२, लोकांक ४५, पृष्ठ १७५ ।