________________
( ३६ )
उतम सत्य कहलाता है । धर्मवृद्धि के प्रयोजन से जो निर्वाध वचन कहे जाते हैं वही सत्य धर्म होता है ।"
संयम - निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ अपने आत्मा के शुद्ध स्वभाव में निरत होना, संयत होना उत्तम संयम कहलाता है । प्राणि और इन्द्रिय अर्थात् प्राणी -घात और ऐन्द्रिक विषयों से विरक्ति-भावना को आत्मसात करना ही संयम होता है।"
तप - आत्म स्वभाव ज्ञान-दर्शन पर श्रद्धा न रख कर स्व-पर पदार्थों के शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा रहना उत्तम तप धर्म है । कर्मों का क्षय करने के लिए जो तपा जाये वह वस्तुतः तप कहलाता है । स्वपर उपकार के लिए सत्पात्र को वान अभय, भोजन, औषधि तथा ज्ञान देने की भावना से त्याग धर्म प्रकाशित होता है ।"
आकिञ्चन्य - निश्चय सम्वग्दर्शन के साथ यह मेरा है इस प्रकार के अभिप्राय का जो अभाव है वह वस्तुत: आकिचग्य धर्म कहलाता है ।"
ब्रह्मचर्य - निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वभाव में टिकना
१. ज्ञान चारित्र शिक्षादी स धर्मः सुनिगद्यते ।
धर्मोप हणार्थं यत्साधु सत्यं तदुच्यते ।।
- तत्वार्थ सार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी- ५, प्रथमसंस्करण १६७०, लोकांक १७, पृष्ठ १६५ ।
२. इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं प्राणिनां बधवर्जनम् ।
समिती वर्तमानस्य मुनेर्भवति संयमः ॥
-- तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार श्रीअमृतचन्द्र सूरि, श्रीगणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, श्लोक संख्या १८, पृष्ठ १६५ ।
३. परं कर्मक्षयार्थ यत्तप्यते तपः स्मृत्तम् ।
तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, बही, पृष्ठ १६५ ।
४. ममेदमित्युपातेषु शरीरादिषु केषुचित् ।
अभिसन्धि निवृत्तिर्या तदाकिंचन्यमुच्यते ॥
---तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार श्रीअमृतजनासूरि, श्लोकांक २० वही, पृष्ठ १६५ ।