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________________ ( २२ ) freeकाव्य में अठारहवीं शती से लेकर बीसवीं शती तक पूजक अष्ट कर्मों के क्षय होने की चर्चा करता है । पूजाकारों को विश्वास है कि इन receit का नाश पूजा के द्वारा सहज है । दोष का अर्थ है अवगुण । जैनदर्शन के अनुसार असातावेदनी कर्म के तीव्र तथा मंद उदय से चित्त में विभिन्न प्रकार के राग उत्पन्न होकर चारित्र में दोष उत्पन्न कर देते है।' ये अठारह प्रकार के उल्लिखित हैं। यथा- datta के उदय से भूख का अनुभव करना । वेदनीय के उदय से प्यास का अनुभव करना । लोक-परलोक मरण-वेदना आदि का भय । शुभ-अशुभ दो प्रकार का है। धर्मादि में रहना १. क्षुधा २. तृषा ३. भय ४. राग ५. क्रोध ६. मोह ७. चिन्ता ८. रोग मृत्यु १०. पसीना ११. खेद १२. जरा १३. रति १४. आश्चर्य १५. निद्रा १६. बन्ध -- - - - शुभराग है। क्रोध कषाय का उत्पन्न होना । ऋषि, यति, पुत्रादि से वात्सल्य रखना । अशुभ विचारता । शरीर में पीड़ा आदि उत्पन्न होना । शरीर का नाश होना । श्रम से जलबिन्दुओं का प्रकट होना । जो वस्तु लाभ से खेद उत्पन्न करे । शरीर का जर्जर होना । मन की प्रिय वस्तु में प्रगाड़ प्रीति रति है । किसी अपूर्व वस्तु में विस्मय होना । दर्शtraरणी के उदय से ज्ञान ज्योति का अचेत होना निद्रा है । चारों गतियों में भ्रमण कर मनुष्य गति में शरीर को प्राप्त करना । १. ' दोषाश्च रागादयः ।' समाधि शतक, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण, सं० २०२८, पृष्ठांक ४५० ।
SR No.010103
Book TitleJain Hindi Puja Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAditya Prachandiya
PublisherJain Shodh Academy Aligadh
Publication Year1987
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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