________________
लोकांतिक देव
( ३८०) देवों को एक प्रकार विशेष लोकांतिक कहलाता है। यह सम्यक दृष्टि होते हैं तथा वैराग्य कल्याण के समय तीर्घकर को सम्बोधन करने में तत्पर
बचन गुप्ति
वषट्कार
व्रत
श्रावक के छह आवश्यकों में से एक; तीर्थकर-प्रतिमा को नमन करना, मन, वचन, काय की निर्मलता के साथ खड़े होकर या बठकर चार बार शिरोनति और बारह बार आवर्तपूर्वक जिनेन्द्र का गुण स्मरण | बोलने की इच्छा को रोकना अर्थात् आत्मा में लोनता। आकर्षण, शिखाबोज, आवाहन के निमित्त इसका उपयोग होता है। देबोद्देशक त्याग-रूप पूजा, या यज्ञ। शुभ कर्म करना और अशुभ कर्म को छोड़ना ब्रत है अथवा हिंसा, असत्य, चौरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच पापों से भाव पूर्वक विरक्त होने को व्रत कहते हैं व्रत सम्यदर्शन होने के पश्चात् होते है और आशिक वीतरागता रूप निश्चय व्रत सहित व्यवहार व्रत होते हैं। देह, बिम्ब, मूर्ति, एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त करने के लिए जीव का गमन । अनुष्ठान, पूजा-विधि, नियम । विनय, प्रार्थना, गुणानुवाद । कृतिकर्म, उत्कृष्ट विनय प्रकट करने के कारण ही कृतिकर्म को विनय कर्म भी कहा गया है। दे. कृतिकर्म। पूजा का उपसंहार, भारत इष्ट देव, या देवों की भक्ति पूर्वक विदाई, जिनबिम्ब की मूलपीठ पर स्थापना। संक्लेश परिणामों का नष्ट हो जाना ही वीतराग कहलाता है, मोह के नष्ट हो जाने पर उनष्ट
विग्रह
विधान
विनती विनयकर्म
विसर्जन
वीतराग