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आगम
आचार्य
आर्जव
मात्मविशुद्धि मातंव्यान
afrat
आयुक
भारती
आराधना
बलम्बन
( ३६० )
धर्म के उदय होने पर प्राणी पर-पदार्थों के प्रति उदासीन तथा अन्तर्मुखी होकर पूर्णतः आकिंचन्य बन जाता है जो मोक्ष प्राप्ति में परम सहायक है । जिनेन्द्रवाणी को आगम कहा गया है, यह मूलतः निरक्षरी वाणी में निसृत हुआ किन्तु कालान्तर में आगम सम्पदा को आचार्यों द्वारा शब्दाबित किया गया फलस्वरूप उसे आचार्य परम्परा से आगतमूल सिद्धान्त को आगम कहा गया है।
पंचपरमेष्ठियों का एक भेद है आचार्य । आचार्य में छतीस गुण विद्यमान होते हैं। आचार्य पर मुनि संघ की व्यवस्था तथा नए मुनियों की दीक्षा दिलाने का arfare भी विद्यमान रहता है ।
आत्मा के दमों में से तृतीय क्रम का धर्म आजंव है, स्वपदार्थ की स्वानुभूति पर आर्जव धर्म का उदय होता है, मन वच, कर्म से जो अत्यन्त स्पष्ट, सरल स्वभावी है, वही प्राणी 'आजंव' धर्म का पालनकर्ता माना जाएगा।
आत्मा की कर्ममल से क्रमश:, या नितान्त मुक्ति । भविष्य की दुःखद कल्पनाओं में मन का निरन्तर व्याकुल रहना आसंध्यान कहलाता है : सात्विक आचरण करने वाली स्त्री-साधु आर्थिका है। जीव अपनी योग्यता से जब नारकी, तियंच, "मनुष्य या देव शरीर में रुका रहे तब जिस कर्म का उदय हो उसे आयु कर्म कहते हैं । नीराजना, भगवान का गुणानुवाद करते हुए उनके सम्मुख प्रज्वलित दीप-संग्रह को चक्राकार घुमाना । ध्यान, पूजा, सेवा, श्रृंगार, जिनवाणी में भक्ति का एक अंग विशेष आराधना है जिसका अर्थ है मात्मा के गुणों का सम्यक् चितवन ।
सहारा, साधन, जिसके आश्रय में मन चारों ओर से खिचकर टिका रह सके ।