________________
अंजनशलाका
अयं
अजीव
अणुव्रत
अदाकार
अच
अतिचार
अतिशय
तीर्थ
'क्षेत्र
'अनंतचतुष्टय
अनुप्रेक्षा
पूजा - शब्द-कोश
जैन मूर्ति की प्रतिष्ठा, मंत्रन्यास, नयनोन्मीलन, श्वेताम्बर विधि
अष्टद्रव्य-जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल - का समीकरण / समवेत् रूप । जिसमें सुख-दुःख अनुभव करने की शक्ति नहीं है और जो ज्ञानशून्य है वह अजीव कहलाता है ।
श्रावक दशा में पांच पापों का स्थूल रूप
-
एक देश
त्याग होता है, उसे अणुव्रत कहते हैं । भावपूजा, भावनापरक पूजन, जिसमें स्थापना, प्रस्तावना, पुराकर्म आदि नहीं होते ।
यह; स्थापना के प्रथम चरण में यह आता है । इन्द्रियों की असावधानी से शीलव्रतों में कुछ अंश - मंग हो जाने को अर्थात् 'कुछ दूषण लग जाने को अतिचार कहते हैं ।
terreince विशेषता को अतिशय कहते हैं, ये मात्र तीर्थकरों में होते हैं ।
तीर्थकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान नामक चार अथवा एक या दो कल्याणक सम्पन्न होने वाले क्षेत्र को तीर्थक्षेत्र कहते हैं ।
आत्मा के चार गुणों- अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनंत सुख के समन्वित रूप को अनंत तुष्टय कहते हैं ।
संसार आदि की असारता का चित्तवन करना ही अनुप्रेक्षा कहलाता है, ये बारह प्रकार के प्रभेदों में विभाजित है नित्य, अशरण, संसार, एकत्व,