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योग मुद्रा में कुछ जैन मूर्तियां अंकित है। वही पर एक मोहर ऐसी भी मिली है, जिस पर भगवान ऋषभदेव का चित्र बड़ी मुद्रा अर्थात् कामोत्सर्व योगासन में चित्रित है । कायोत्सर्ग योगासन का उल्लेख बुथम के सम्बन्ध में किया गया है। ये मूर्तियाँ पाँच हजार वर्ष पुरानी हैं। इससे प्रकट होता है कि सिन्धु घाटी के निवासी ऋषभदेव को भी पूजा करते थे और उस समय लोक में जैनधर्म भी प्रचलित था ।'
फलक १२ और ११८ आकृति ७ मार्शल कृत मोहनजोदड़ो कायोत्सर्ग नामक योगासन में खड़े हुए देवताओं को सूचित करती है। यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या में विशेष रूप से मिलती है, जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित तीर्थंकर श्री ऋषभ देवता की मूर्ति में । ऋषभ का अर्थ है बैल, जो आदिनाथ का लक्षण है। मुहर संख्या एफ-जी० एच० फलक वो पर अंकित वेवमूर्ति में एक बैल ही बना है, सम्भव है कि यह वन ही का पूर्व रूप हो । यदि ऐसा हो तो शैव धर्म की तरह जंनधर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है । '
इस प्रकार आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व भगवान ऋषभदेवादि की पूजा - करने का उल्लेख मिलता है। श्रमण संस्कृति में नमस्कारमंत्र अनादिकालीन - माना जाता है। इस मंत्र में पंच परमेष्ठियों की वंदना की गई है। पूजा का आदिम रूप णमो अर्थात् नमन, नमस्कार रूप में मिलता है । mer कुक्कुर ने 'समयसार' में 'बंबितु' शब्द द्वारा सिद्धों को नमस्कार किया है।"
नमन और बंदनापरक पूजनीय भावना के लिए किसी अभिव्यंजना रूप
१. भारत में संस्कृति एवं धर्म, डा० एम० एल० शर्मा, रामा पब्लिशिंग हाउस, बड़ौत (मेरठ), प्रथम संस्करण १६६६, पृष्ठ १६ ।
२. हिन्दू सभ्यता, डा० राधाकुमुद मुकर्जी, अनुवादक - श्री वासुदेवशरण अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-६, सन् १९५५, पृष्ठ २३-२४ ।
३. वंदितु सम्यसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदि पत्ते ।
वोच्छामि समय पाहुड मिणमोसुद केवली भणिदं ॥
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-समयसार, आचार्य कुंदकुंद, मायांक १: कुचकुंद भारती, ७ एरामपुर रोड, दिल्ली- ११० १ प्रथम आवृति, मई १९७८, पृष्ठ १ ।