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बार करताना सके सवापित होने की मनोकामना करता है। एकएकबोचार पर यह पूर्ण मावल का शोषण करता है।'
अपने में भाराव्य-स्थापना के परमात् अपने अध्यकों के भय करने का उपक्रम एक-एक मध्य के साथ भक्त प्रभु के गुणों का चिन्तबन गान कर सम्पन्न करता है। बसका स्वभाव तो निर्मल-शान्त तथा शीतल है थस्तु पूजक अपने सम्म खरा तथा मृत्य विनाम के लिए अल को बढ़ाकर शुभसंकल्प करता है। पूजा में संकल्पित सामग्री जैनधर्मानुसार सर्वथा निर्माल्य रूप अर्थात् त्यागने योग्य होती है।'
संसार-ताप को शान्त करने के लिए पूजक शीतल स्वभावी चन्दन का मेपण करता है। सिह प्रभु के द्वारा अपने समप्र ताप शान्त करने के लिए
अलय पर प्राप्त करने के लिए पूजक पूर्ण अमात् का क्षेपण करता है। इस अक्षत् में तीन मुगों का चितवन कर पूजक उसका संकल्प पूर्वक क्षेपण
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१. (१) ओ३म ह्रीं देव शास्त्र गुरु समूह ! अत्र अवतार बतर संवोषट् ।
(२) ओ३म् ह्रीं देव शास्त्र गुरु समूह ! अत्र विण्ठ-तिष्ठ ठः ठः । (३) बो३म् ह्रीं देव शास्त्र गुरु समूह ! अब मम सन्निहितो भव-भव
वषट् ।
-श्री देव-शास्त्र-गुरुपूजा, धानतराय, सानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०६ । २. सुरपति उरग मरनाथ तिनकरि बन्दनीक सुपद प्रभा ।
अति शोभनीक सुबरण उज्ज्वल देख छवि मोहित सभा ॥ बह मीर बीर समुद्र पट भरि जय तसु बहु-विधि नचू। भरहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु-निर्गन्ध नित पूजा रचू।। मलिन बस्तु हरलेत सब बल-स्वभाव मलछीन । जासों पूजों परमपद देव मास्न गुरु तीन ॥ -श्री देवमास्थ पूजा, पानसराब, मानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०७ । जे विजय-उदर बझार प्रानी, जपत अति दुवर बरे । सिम बाहित र सुवचन जिनके परम शीतलता भरे ॥ तसु भ्रमर लोभित घाण पावन सरस चन्दन घिसिस। अरहन्त अप-सिवान्त गुरु-निर्गन्ध नित पूजा रचू॥
पन्दन भीतलताकरे, तपत बस्तु परवीन,
पासों पूजों परमपद, देव, बाम्ब, गुरु तीन ।। -जी देवशास्त्र गुरुमूणा, वागतराम, मानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०७ ।