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इस प्रकार पूजक अथवा भक्त पूज्य-पर-आत्माओं का आभण लेता हुआ मी स्वलक्ष्य में अति सावधान होता है। परमात्मा- आत्माओं की सम्मान वृति के साथ-साथ अपने स्वरूप को स्पष्ट करता रहता है। यदि पूजक को आत्म-स्वरूप का कदाचित भी मान नहीं होता तो उसे परमात्मा का भी प्रतिमास
नहीं हो पाता क्यों कि परमात्मा का स्वरूप स्व आत्मा के ही अनुरूप है तब afe आत्मा को न जाना गया तो परमात्मा को जानना किस प्रकार सम्भव हो सकता है । अस्तु वास्तविक पूजक आत्म-ज्ञानी और आत्मपूजक है । ऐसे ही पूजक की पूजा सार्थक है अर्थात् वह मोक्ष साधिका है अन्यथा सब क्रियाएं व्यवहार मात्र लोक व्यवहार साधिका मात्र है।
लोक में पूज्य, पूजा और पूजन भाव में पराश्रित भावना स्पष्टतः मुखरित है। यहां किसी भी कार्य का कर्ता, दाता परकीय शक्ति है और पूजक उसी का आश्रय लेकर अपने अभाव की पूर्ति के लिए पूजा-अर्चा करता है । वह स्वच्छ तथा हार्दिक भावना से परिपूर्ण लाव्य-सामग्री का अपने उपास्य के सम्मुख भोग लगाता है और अन्त में स्वयं उसका सेवन कर कल्याणकारी मानता है। जन-पूजा में इस प्रकार का कोई विधान नहीं है। यहाँ पूजक सर्वसिद्ध भगवान जो स्वयं सिद्ध हो चुके हैं, जो ध्रुव-स्वभाव को प्राप्त परमात्मा हैं तथा अपने ही सर्व प्रवेशों में स्वभाव सिद्ध परमात्मा हैं उसे पूजता है। यहाँ पूजक अपने को ही अपने आप में जो अनादि अनन्त अहेतुक है, शुद्ध अशुद्ध पर्यायों से रहित हैं, चित्तस्वभावमय है ऐसे सिद्ध परमात्मा की पूजा करता है। तीर्थंकर की वाणी तथा जिनवाणी को निज चारित्र में आत्मसात् करने वाले साधु श्रेष्ठि की पूजा करना बस्तुतः देव शास्त्र और गुरु की पूजा है।"
यहाँ अभय तो कर्म मुक्त भगवान को बनाते हैं किन्तु उनका जो विकल्पबनाया, ज्ञान-भगवान को हृदय में प्रतिष्ठित किया वस्तुतः उसी की पूजा
१. प्रथम देव अरहन्त सुश्रुत सिद्धान्त जू
गुरु निर्ग्रन्थ महन्त मुकति पुर-पंथ जू । तीन रतन जग मांहि सो ये जग ध्याइये, तिनकी भक्ति प्रसाद परम-पद पाइये ॥ पूजूं पद अरहन्त के पूजों गुरुपद सार । पूज देवी सरस्वती नित प्रति बष्ट प्रकार |
-श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, चागतराम, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०६ ।