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के स्वरूप को जानता है । वह सिड परमेष्ठी का दर्शन करता है उसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के स्वरूप मानता, देखता है तथा समस्त प्राणियों में क्याभाव रखता है, उस जीव के शुभ उपयोग होता है।' जिसका उपयोग विषय और कवाय में अत्यधिक अनुरक्त है, मिथ्या शास्त्रों को सुनने में, कुष्मान में और कुसंगति में रमा हुआ है, उप है और कुमार्ग में तत्पर है, उसका उपयोग अशुभ है।
असम से शम की और प्रवृत्त होने का भाव प्राणी की पवित्र ति का घोतक है। अब इस आत्मा में अपना स्वरूप और जागतिक बोष होता है तब पर- पदार्थ में जिनकी भावना छोड़कर विशुद्ध दर्शन-शान स्वभाव वाले निज मुख आत्म तत्व में रुचि करने लगता है । अन्तरास्मा को शान्ति के लिए जो प्रयत्न होता है वह है निर्मल विशुख दर्शनशान स्वभाव में परिणत परम आत्मा की दृष्टि और निज को कल्पना से रहित निज सहज स्वभाव को दृष्टि । इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर शुभरागवश उभूत भगवद्भक्ति में अन्तरात्मा का प्रवास होता है । इसके फलस्वरूप व्यवहार में उस सद्गृहस्थ की देव-पूजा में प्रवृत्ति होती है। देव की स्थिति पूजक का उपादेय लक्ष्य है। अतः व्यवहार से अथवा उपचार से तो पूज्य-परमेष्ठी भगवान का प्रभय लिया जाता है और निश्चय से निज सहज-सिख-चैतन्य-प्रभु की दृष्टि रूप हो सहारा होता है। हमें सत्य-सहारा पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए जिसके लिए व्यवहार और प्रयोजन पहिचानते हुए देवपूजा पर गम्भीर वृष्टिपात करना उचित है।
पूजा में निश्चय रूप भाव अर्थात् आध्यात्मिकता का रूप किस प्रकार का होता है, यह जानना भी आवश्यक है। पूजन में ऐसे आचार-विचार का होना आवश्यक है जिससे पूज्य देव और उनको स्थापित प्रतिमा को विवेकपूर्वक ध्यान में लाया जा सके। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि विषय कषाय
१. जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्ध तहेव अणगारे ।
जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स ॥
-कुन्दकुन्द प्राभूत संग्रह, वही, पृष्ठ ३२ । २. विसय कसाबों गाडगे दुस्सुदि दुश्चित दुगोठ्ठियुदो।
उग्गो उम्मग्गपरो उपमोगो जस्स सो बसुहो।। -कुन्द-कुन्द प्रामृत संग्रह, वही, पृष्ठ ३२ ।