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उसके प्रवर्तकों-तीर्थकरों तथा उनकी परम्परा का महत्त्वपूर्ण अवसान है। भावितीयंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम अर्थात् चौबीसवें तीर्थकर महावीर और उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने आध्यात्मिक विद्या का प्रसार किया है, जिसे उपनिषद् साहित्य में परा-विद्या अर्थात् उत्कृष्ट विद्या कहा गया है।'
तीर्थकर महावीर के सिद्धान्तों और वामय का अवधारण एवं संरक्षण उनके उत्तरवर्ती बमणों और उपासकों ने किया है। तीर्थक्षेत्र, मन्दिर, मतियां ग्रंथागार, स्मारक आदि सांस्कृतिक विभव उन्हीं के अटूट प्रयत्नों से आज संरक्षित हैं। इस उपलब्ध सामग्री का श्रुतधराचार्य, सारस्वताचार्य, प्रबुवाचार्य और परम्परा पोषकाचार्यों द्वारा संबढन होता रहा है। यहां श्रुतधराचार्यो से तात्पर्य उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त-साहित्य, कर्मसाहित्य तथा अध्यात्म-साहित्य की रचना की है । जैनागम में ऐसे आचार्यो में गणधर, धरसेन, भूतबलि, यतिवृषभ, कुंद कुंक आचार्य आदि उल्लेखनीय हैं । सारस्वताचार्य का संकेत उन आचार्यों से है, जिन्होंने भूत परम्परा द्वारा प्रणीत मौलिक साहित्य तथा टोका साहित्य द्वारा धर्म-सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया है। इन आचार्यों में स्वामी समंतभद्र, देवनंदि, पूज्यपाद, नेमीचंद्र सिद्धान्ताचार्य, जोइन्दु, अमृतचन्द्र सूरि आदि उल्लेखनीय हैं। प्रबुद्धाचार्य से अभिप्राय उन आचार्यों से है, जिन्होंने अपनी प्रतिमा द्वारा ग्रंथ-प्रणयन के साथ विवृतियां तथा भाष्य रखे हैं। इन आचार्यों में गुणभद्र, प्रभाचंद्र, हरिषेण, सोमदेव, पदमचंद आदि उल्लेखनीय हैं। परम्परापोषकाचार्य से भभिप्राय उन आचार्यों से हैं, जिन्होंने दिगम्बर परम्परा को रक्षा के लिए प्राचीन आचार्यों द्वारा निमित ग्रंथों के आधार पर अपने नए प्रय रथे और शास्त्रागम परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा है। इस श्रेणी में आचार्य सकलकीति, ब्रह्म जिनकास, ज्ञानभूषण, विद्यानंद, यसकीति तथा मल्लिभूषण भाषि उल्लेखनीय हैं।
१. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा-डा० नेमीचन्द्र शास्त्री,
भाग १, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद्, सागर
प्रथम संस्करण, सन् १९७४, आमुख पृष्ठ १३ । २. तीथंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा-डा० नेमिचन्द्र शास्त्री,
भाग १, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्, सागर, प्रथम संस्करण सन् १९७४, आमुख पृष्ठ १८, १६ तया २० ।