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(२०६ ) इस प्रकार जन-हिन्दी पूजा-काव्य में शांत रस को निष्पत्ति के लिए गीतिका छंद को अपनाया गया है। गीता
मात्रिक समछंद का एक भेद गीता छंद है। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के प्रसिद्ध कविवर यानतराय ने 'श्री देवशास्त्र गुरु की पूनाभाषा' में गीताछंद का प्रयोग किया है।
उन्नीसवीं शती के पूजाकाव्य के रससिद कविवर मनरंगलाल की 'श्री अनन्तनाथ जिनपूजा" और 'श्री शीतलनाथ जिनपूजा में गीता छंद व्यवहत है। इसके अतिरिक्त इसी शती के अन्य उत्कृष्ट कवि बखतावररत्न को 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा" में भी गीता छंद परिलक्षित है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में भक्त्यात्मक प्रसंग में गीता छंद को गहीत किया गया है जिसका परिष्कृत रूप हरिगीतिका जैसा है।
१. छन्दः प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', प्रकाशिका-पूर्णिमादेवी, धर्म
पलि स्व० बाबू जुगल किशोर, जगन्नाथ प्रिंटिंग प्रेस, विलासपुर, संस्क.
१६६० ई०, पृष्ठ ६५ । २. लोचन सु रसना ब्रान उर, उत्साह के करतार हैं।
मोपे न उपमा जाय वरणी सकल फल गुणसार हैं ।। सो फल चढावत अर्थ पूरन, परम अमृत रस सचू। अरहत श्रुत सिद्धान्त गुरू-निरग्रंथ नित पूजा रचू॥
-श्री देवशास्त्र गुरु की पूजाभाषा, द्यानतराय, संग्रहीत ग्रंथ जैन पूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक-भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड,
कलकत्ता-७, पृष्ठ १६।। ३. श्री अनंतनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि,
प्रकाशक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड,
बनारस, संस्क० १६५७ ई०, पृष्ठ ३५१ । ४. श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीत प्रथ- राजेश नित्य पूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ
६७ । ५. वर स्वर्ग प्राणत को विहाय, सुमात वामा सुत भये ।
अश्वसेन के पारस जिनेश्वर, चरन जिनके सुर नये ॥ नव हाथ उन्नत तन विराजे, उरग लच्छन पद लसें। थापू तुम्हें जिन आय तिष्ठों, करम मेरे सब नसें ।। ---श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, संगृहीतग्रंथ- राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वसं, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ११८ ।