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विज्ञानविवयक चर्चा करने के उपरान्त यहीं उनके स्वरूप तथा अभिप्राय सम्बन्धी सक्षेप में विवेचन करना वहाँ
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पूजनं इति पूजा । पूजा शब्द 'पूज्' धातु से बना है जिसका अर्थ है- अर्थ करना । जैन शास्त्रों में सेवा-सत्कार को वैयावृत्य कहा है तथा पूजा को यावृत्य माना है । देवाधिदेव चरणों की बम्बना ही पूजा है।"
मैनधर्मानुसार पूजा-विधान दो रूपों में विभाजित किया जा सकता है',
मपा-
१. भावपूजा २. ब्रव्यपूजा
मूल में भावपूजा का ही प्रचलन रहा है । कालान्तर में द्रव्यरूपा का प्रचलन हुआ है । व्यरूपा में आरभ्य के स्थापन की परिकल्पना की जाती है और उसकी उपासना भी प्रम्यरूप में हुआ करती है। मैनदर्शन कान है। समग्र कर्म-कुल को यहाँ आठ भागों में विभाजित किया गया है। इन्हीं आधार पर अष्टद्रव्यों की कल्पना स्थिर हुई है।
जैनधर्म में पूजा की सामग्री को अर्ध्या कहा गया है। वस्तुतः पूजा-प के सम्मिश्रण को अर्ध्य कहते हैं। जेनेतर लोक में इसे प्रभु के लिए भोग लखना कहते हैं । भोग्य सामग्री का प्रसाद रूप में सेवन किया जाता है पर भिवानी में इसका मिन अभिप्राय है। जैनपूजा में अयं निर्माल्य होता है । वह तो जन्म जरावि कमों का क्षय करके मोक्ष प्राप्ति के लिए शुभ संक
१. राजेन्द्र अभिधान कोच, भाग ४, पृष्ठ १०७३ ।
२. देवानिदेश बरने परिचरणं सर्व दुःख निर्हरणम् । हि कामदहिनि परिचितुमादाहृतो नित्यम् ॥
समीचीन धर्मशास्त्र, सम्पा० आचार्य समन्तभद्र, वीरसेवा मंदिर, संवत् २०१२, श्लोक संख्या ५/२६, पृष्ठ १५५ ।
३ हिन्दी का जैनपूजा काव्य, डा० महेन्द्रसागर प्रचडिया, संग्रहीत ग्रंथचावाची, तृतीय विल्य, प्रकाशक- एशिया पम्बिलिंग हाउस व १२०, पृष्ठ ५६
म्बूबार्क,