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सकल म का उल्लेख मवरय हुभा है तथापि दोनों के मूल में कोई भेद नहीं है । भेरक तत्व है राग और यहां दोनों शक्तियां बीतराग-गुण से सम्पन्न है सिड और अरहंत देव भक्ति परक पूजाकाव्य में व्यजित है। पूजा इन शक्तियों की भक्ति करने पर परम शुद्धि और सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करता है। जैनधर्म के अनुसार केवल ज्ञान वस्तुतः अनन्त सुख की प्राप्ति का मूलाधार है।
तमक्ति मूलतः जिनेन्द्रवाणी पर आधृत है । जिनवाणी का लिखित रूप जनशास्त्र हैं। प्रसिद्ध पूजाकाव्य प्रणेता ग्रानतराय द्वारा मत मलतः दो भागों में विभक्त की गई है-प्रथमभाव त अर्थात् शान और दूसरी प्रख्यात अर्थात् शब्यायित जिनवाणी । शास्त्र पूजा अथवा श्रुतभक्ति करने से पूमक की जड़ता का विसर्जन होता है और ज्ञानोपलग्धि होती है । शान ही मुक्ति के लिए प्रमुख सोपान है।
गुरु भक्ति में आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को पूजा सम्मिलित है। मुनियों और आचार्यों द्वारा योगि-भक्ति का उपयोग हुआ करता है। सल्लेखना अथवा मृत्यु महोत्सव समाधिभक्ति का उल्लेखनीय प्रयोग है। अनित्य-भावना के मर्म को जानकर साधक इस शरीर को क्षण भंगुरता को समझकर उसे ज्ञानपूर्वक क्रमशः त्यागता है। शरीर त्याग ही वस्तुतः सांसारिक मृत्यु कहलाती है। मृत्यु का यह मांगलिक प्रयोग नभक्ति की अपनी उल्लेखनीय विशेषता है। इस भक्ति के द्वारा जीवन के समप्र काषायिक कर्मकुल शान्त हो जाते हैं।
जैनाचार्यों ने निर्वाण भक्ति की मौलिक किन्तु महत्वपूर्ण व्यवस्था की है। इस भक्ति में तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों-गर्म, जन्म, तप, मान, मोक्ष-की स्तुति तथा निर्वाण-स्थलों की वंदना की जाती है। निर्वाण भक्ति के द्वारा पूजक अथवा साधक का चित्त राग से विमुख होकर वीतराग की और प्रशस्त होता है। वीतरागता माने पर ही मोक्ष दशा को पाया जा सकता है।
चैत्य और चंत्यालय भक्ति के साथ जैन भक्ति में नंदीश्वर भक्ति का प्रयोग उल्लेखनीय तथा अभिनव है। इस भक्ति के द्वारा वर्तमान संसार का स्वरूप विस्तार को प्राप्त करता है। मध्य लोक में नंबोरवर दीप की स्थिति आज भी भोगोलिक-विज्ञान के लिए गवेषना का विषय है।