________________
( ६४ )
तीर्थ करमक्ति - तीर्थ की स्थापना करने वाला तीर्थंकर कहलाता है ।' संसार रूपी सागर जिस निमित्त से तिरा जाता है उसे वस्तुतः तीर्थ कहते हैं।" इस भक्ति की प्रमुख विशेषता है कि पूजक में लघुता, शरण तथा गुण कीर्तन, नाम-कीर्तन तथा दास्य भाव का होना आवश्यक है ।"
तीर्थकर गर्म, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष, नामक पाँच महा कल्याणकों से सुशोभित हैं जो आठ महा प्रातिहार्यो सहित विराजमान हैं, जो चौंतीस विशेष अतिशयों से सुशोभित हैं, जो देवों के बत्तीस इन्द्रों के मणिमय मुकुट लगे हुए मस्तकों से पूज्य हैं जिनको समस्त इन्द्र आकर नमस्कार करते हैं, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती, ऋषि, मुनि, यति, अनगार आदि सब जिनकी सभा में आकर धर्मोपदेश सुनते हैं और जिनके लिए स्तुति की जाती है ऐसे श्री ऋषभदेव से लेकर श्री महावीर पर्यंत चौबीसों महापुरुष तीर्थङ्कर परमदेव की अर्धा, पूजा, बन्दना की जाती है। तीर्थंकर भक्ति से बुःखों का नाश, कर्मों का नाश, रत्नत्रय की प्राप्ति आदि कल्याणकारी गुणों की उपलब्धि होती है । "
तीर्थंकर भक्ति पर आधृत पूजा काव्य की एक सुदीर्घ परम्परा रही है । प्रत्येक शताब्दि में इन तीर्थंकरों की पूजाएं रची गई हैं जिनका पारायण जैन
१. जिनसहस्रनाम, पं० आशाधर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी, प्रथम संस्करण सन् १६५४, पृष्ठ ७८ ।
२. तीर्यते संसार सागरो येन तत्तीर्थम् ।
- जिन सहस्रनाम, पं० आशाधर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी, प्रथम संस्करण सन् १९५४, पृष्ठ ७८ ।
३. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण सन् १९६३, पृष्ठ ११०-१११ ।
४. चउवीस तित्थयर भक्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं । पंचमहा कल्लाण संपणा, अट्ठमहापाडिहेर सहियाणं, चउतीस अतिसयविसेस संजुताणं, वत्तीसदेबिद मणिमउड मत्थयमहियाणं, बलदेववासुदेव चक्क हरिसि मुणि जर अणगारोवगूढाणं, थुइसय सहस्सणिलयाणं, उसहाइवीरपच्छिम मङ्गल महापुरिसाणं णिच्चकाल अंचेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, satar बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं ।
- तीर्थङ्कर भक्ति, दशभक्त्यादि संग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकाठा, गुजरात, प्रथम संस्करण, वीर निर्वाण संवत २४८१, पृष्ठ १७३-१७४ ।