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( ७६ ) के लिए जनधर्म में प्रयुक्त है । बुधि-विधारी होने से उनमें संसार संरक्षण शक्ति विद्यमान रहती है फलस्वरूप उनकी पूजा-अर्चा किये जाने का उल्लेख 'महापुराण' में उपलब्ध है।
जैनधर्म में मुनिचर्या में योगिभक्ति के शुभवर्शन सहज में किए जा सकते हैं। योगीजन जन्म, जरा उर-रोग शोक आदि पर योग साधना द्वारा विजय प्राप्त करते हैं। राग-द्वेष को शान्त कर शान्ति स्थापनार्थ वन-स्थलों में जाकर योग साधना करते हैं। हिन्दी-जैन-पूजा-काव्य परम्परा में मुनियों, तीर्थकरों पर आधृत अनेक पूजा-कृतियों में उपसर्ग जीतने के प्रसंगों में योगिभक्ति के सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। 'मुनि विष्णुकुमार महामुनि नामक पूजा' में हुए उपसर्ग पर विजय वर्णन का विशद विवेचन हुआ है । अपनी योगि भक्ति के द्वारा उन्होंने मुनि को आहार सुलभ कराया तथा स्वयं भी आहार ग्रहण किया था। इन योगियो की पूजा करने पर योगि-भक्ति मुखर हो उठी है। आचार्य भक्ति___ 'चर' धातु अङ उपसर्ग तथा णायत प्रत्यय के योग से आचार्य राम्व को निष्पत्ति होती है। इस भक्ति में ज्ञान, संयम, वीतराग प्रियता तथा मुनि जनों को कर्मक्षयार्थ शिक्षा-दीक्षा देने की सामर्थ्य विद्यमान
१. महायोगिन् नमस्तुभ्य महाप्रज्ञ नमो स्तुते ।
नमो महात्मने तुभ्यं नमः स्तोते महद्धये ॥ -महापुराण, भाग १, जिनसेनाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण वि. सं. २००७, पृष्ठ ३५ । २. विष्णु कुमार महामुनि को ऋद्धि भई ।
नाम विक्रया तास सकल आनन्द ठई ।। सो मुनि आए हथनापुर के बीच में । मुनि बचाए रक्षा कर वन बीच में । तहाँ भयोमानन्द सर्व जीवन धनों। जिमि चिन्तामणि रत्न एक पायो मनो॥ सब पुर जै जै कार शब्दउचरत भए। मुनि को देय आहार आप करते भए ।
-श्री विष्णुकुमार महामुनि पूजा, रघुसुत, श्री जैनपूजा पाठ संग्रह, श्री भागचन्द्र पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १७३ ।