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( ७२ ) मुनिके चरणकमलोंके भ्रमर (शिष्य) थे वाणसकुल कमलको विकसित करने वाले प्रादित्यशर्माके पौत्र और मल्लिनाथके पुत्र थे। इनके भाईका नाम मोम था, जो वृत्त और विद्याका धाम था । प्रस्तुत व्याकरणमें चार अध्याय हैं, अपनेको पहला ही अध्याय प्राप्त हो सका है, इसीसे ग्रन्थका अन्तभाग नहीं दिया जा सका । हम अध्यायको भूमिकामें श्रीवेंकट रंगनाथ शर्माने लिखा है कि यह ग्रन्थ साङ्गसिद्धशब्दानुशासनके कर्ता हेमचन्द्राचार्य से बादका और कालिदासके शकुन्तलादि नाटकायके व्याख्याता काट्यवेमसे पहलेका बना हुआ है, क्योंकि इसमें हेमचन्द्रके उन ग्रन्थ-वाक्योंका उल्लेग्वपूर्वक खण्डन है और काव्यबेमके व्याख्या-ग्रन्थों में इस ग्रन्थ के सूत्रोंका ही प्राकृत विषयों में प्रमाण रूपसे निर्देश पाया जाता है। अतः यह वि० का १३ वों शताब्दी या इससे भी कुछ बादका रचित होना चाहिये ।
१६वीं प्रशस्ति 'जिनसहस्त्रनाम टीका' की है जिसके रचयिता अमरकीर्ति हैं जो भ० मल्लिभूषणके शिष्य थे। मल्लिभूषण मालवाक पट्ट पर पदारूढ थे। इन्हों के समकालीन विद्यानन्दि और श्रुतमागर थे। अमर. कीर्तिने इस प्रशस्तिमें विद्यानन्दि और श्रुतसागर दोनोंका श्रादर पृवक स्मरण किया है । प्रशस्तिमें रचनाकाल नहीं दिया, फिर भी अमरकीर्तिका समय विक्रमकी १६ वीं शताब्दी जान पडना है । यह टीका अभी तक अप्रकाशित है, इस प्रकाशमें लानेका प्रयत्न होना चाहिए। अमरकीर्तिकी यह टीका भ. विश्वसेनके द्वारा अनुमोदित हुई है ।।
प्रशस्ति नम्बर १७, १८, १६, १००, और १०५ नम्बरकी प्रशस्तियां सरस्वती (भारती कल्प, कामचण्डालीकल्प, ज्वालिनी कल्प, भैरवपद्मावतीकल्प सटीक और महापुराण नामक ग्रन्थों की हैं। जिनके कर्ता आचाय मल्लिषेण हैं । जिनका संक्षिप्त परिचय ६० नं. की प्रशस्तिमें दिया गया है।
५०० वीं प्रशस्ति 'कर्मकाण्ड टीका की है जिसके कर्ता भ०ज्ञानभूषण और सुमतिकीर्ति है । इसके कर्ताका परिचय नं० ७३ की प्रशस्तिमें दिया गया है।