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(६८) समान थे तथा चतुर्मुख देवके शिष्य थे ।
इन दोनों ही शिलालेखोंमें उल्लिखित प्रभाचन्द्र एक ही विद्वान जान पड़ते हैं । हाँ, द्वितीय लेख ( ५५ ) में चतुर्मुख देवका नाम नया जरूर है, पर यह सम्भव प्रतीत होता है कि प्रभाचन्द्र के दक्षिणसे धार में पाने के पश्चात् देशीयगणके विद्वान चतुर्मुखदेव भी उनके गुरु रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि गुरु भी कई प्रकारके होने हैं-दीक्षागुरु, विद्यागुरु प्रादि एक-एक विद्वानके कई-कई गुरु और कई-कई शिष्य होते थे । अतएव चतुमुखदेव भी प्रभाचन्द्र के किसी विषयमें गुरु रहे हो, और इसलिए वे उन्हें समादरकी दृष्टिसे देखते हों तो कोई आपत्तिकी बात नहीं, अपनेसे बड़ेको आज भी पूज्य और आदरणीय माना जाता है।
विक्रमकी १०वी, ११वीं और १२वीं शताब्दीमें धारानगरी जन-धनसे पूर्ण और संस्कृत विद्याका केन्द्र बनी हुई थी। वहाँ जैन जैनेतर विद्वानोंका खामा जमघट लगा रहता था। अवन्ति देशका शासक राजा भोज जितना पराक्रमी और प्रतापी था वह उतना ही विद्या व्यसनी भी था। वहां पर विद्यासदन (सरस्वती पाठशाला) नामका एक विशाल विद्यापीट भी था। जिसमें सुदूर दशोंके विद्यारसिक अपनी ज्ञान-पिपासाको शान्त करते थे। उस समय धारा नगरी और प्राम-पासके स्थानोमें अनेक जैन विद्वान और विविध गण-गच्छोंक दिगम्बर साधु निवास करते थे। अनेक मुनियों प्राचार्यो और विद्वानोंने धारा और तत् समीपवर्ती नगरोंमें रहते हुए ग्रन्थx श्रीधाराधिपभोजराज-मुकुट-प्रोताश्म-रश्मि-च्छटा--
च्छाया-कुछ म-पंक-लिप्तचरणाम्भोजात-लक्ष्मीधवः न्यायाब्जाकरमण्डने दिनमणिश्शब्दाब्ज-रोदोमणिः-- स्थयात्पण्डित-पुण्डरीक-तरणिः श्रीमान्प्रभाचंद्रमाः ॥१७॥
श्रीचतुर्मुखदेवानां शिष्योऽष्यः प्रवादिभिः । पण्डितश्रीप्रभाचंद्रो रुद्रवादि-गजांकुशः ॥१८॥
-जैन शिलालेख सं० भा० १ पृ. ११८