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किया है, जिनका समय वि० की १२वीं शताब्दी है, अतः यह १५वीं शताब्दी के बादकी रचना जान पड़ती है ।
६०, ६७,६८,६६, १००, १०१ की ये छह प्रशस्तियों क्रमशः नागकुमारचरित्र सरस्वती ( भारतो ) कल्प, कामचाण्डाली कल्प ज्वालिनी कल्प, भैरव पद्मावती कल्प सटीक और महापुराण नामक - ग्रन्थोंसे सम्बन्ध रखते हैं, जिनके कर्ता उभय भाषा कवि चक्रवर्ती श्राचार्य मल्लिषेण हैं, जो महामुनि जिनसेनके शिष्य और कनकसेनके प्रशिष्य थे । यह कनकसेन उन श्रजितसेनाचार्य के शिष्य थे जो गङ्गवंशीय नरेश राचमल्ल और उनके मन्त्री एवं सेनापति चामुण्डरायके गुरु थे । गोम्मटसारके कर्ता श्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने उनका 'भुषण गुरु' नामसे उल्लेख किया है। जिनसेनके अनुज नरेन्द्रसेन भी प्रख्यात कोति थे । कवि मलिषेण विद्वान कवि तो थे ही, साथ ही उन्होंने अपनेको सकलागम में निपुण और मंत्रवादमें कुशल सूचित किया है। मंत्र-तंत्रविषयक आपके ग्रन्थोंमें स्तंभन, मारण, मोहन और वशीकरण श्रादिक प्रयोग भी पाये जाते हैं, जिनके कारण समाजमें आपकी प्रसिद्धि मंत्र-तंत्र वादी रूपमें चली आ रही है । आप उभयभाषा (सं० प्रा० ) के प्रौद विद्वान थे, परन्तु आपको प्रायः सभी रचनाएँ संस्कृत भाषामें प्राप्त हुई हैं । प्राकृत भाषाकी कोई भी रचना प्राप्त नहीं हुई । महापुराणको छोड़कर आपके उपलब्ध सभी ग्रन्थोंमें रचना समय दिया हुआ नहीं हैं जिससे यह बतला सकना संभव नहीं है कि आपने ग्रन्थ प्रणयनका यह कार्य से कब तक किया है और अपने जन्मसे इस भूमण्डल को कबसे कब तक अलंकृत किया है ।
परन्तु कविने अपना महापुराण नामका संस्कृत ग्रन्थ शक संवत् ६६* ( वि० संवत् ११०४ ) में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन मूलगुन्द, नामक नगरके जैनमन्दिरमें, जो उस समय तीर्थरूप में प्रसिद्धिको प्राप्त था, स्थित होकर रचा है। प्रस्तुत मुलगुन्ढ़ बम्बई प्रान्तके प्राचीन